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सरकारी अफसरों को विचार और अभिव्यक्ति की आजादी है – छत्तीसगढ़ पी.यू.सी.एल.

छत्तीसगढ़ लोकस्वातन्त्र संघटन ,बिलासपुर

प्रेस रिलीज 15 अगस्त 17
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आलोचना करने वाले सरकारी अफसरों को खामोश करने के लिए सेवा नियमों के आचरण और सोशल मीडिया दिश्निर्देशों के भेदभावपूर्ण और मनमाने तौर पर इस्तमाल किये जाने की छत्तीसगढ़ पी.यू.सी.एल. कड़े शब्दों में निंदा करता है.

इस कड़ी में सबसे ताज़ा उदाहरण बलोदा बाज़ार के उप-जेल के सहायक जेल अदिक्षक, श्री दिनेश ध्रुव का है जिन्हें इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर आदिवासी अधिकारों की वकालत की थी, और दावा किया कि “सभी आदिवासी नाक्साल्वादी नहीं हैं” (“All Adivasis are not Naxalites.”). इस  निलंबन को, इसी प्रकार के एक और निलंबन की कड़ी में देखने की ज़रुरत है, जिसमें रायपुर जेल की एक अन्य उप-जेलर, सुश्री वर्षा डोंगरे, को इस लिए निलंबित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने फेसबुक पर पुलिस हिरासत में जवान आदिवासी बालाओं को दी जाने वाली यातनाओं के बारे में लिखा था, जिनके घावों को उन्होंने स्वाम देखा था, जब वे जगदलपुर केन्द्रीय जेल में लायी गयीं थीं.

पिछले साल जून माह में, छत्तीसगढ़ के एक आई.ए.एस. अफसर, अलेक्स पॉल मेनोन, को सरकार ने एक नोटिस जारी किया था और उनके द्वारा फेसबुक पर यह लिखे जाने पर सवाल किया था: “क्या भारत की कानून व्यवस्था पक्षपाती है, जहाँ 94% भारतवासी जो मृत्युदंड का सामना कर रहे हैं वे या तो मुसलमान या दलित हैं?” इस फेसबुक पोस्ट को भी प्राश्निक अधिकारीयों के आचरण के नियमों का उल्लंघन माना गया था.

यह सभी पोस्ट, जो विशेषकर ऐसे लोगों द्वारा लिखी गयीं जो स्वम हाशिये पर पड़े लोग हैं (जैसे कि ध्रुव एक गोंड आदिवासी हैं, डोंगरे, अनुसूचित जाति की हैं, और मेनोन इसाई हैं), और यह न तो सरकार-विरोधी, न उत्तेजक, न तथ्यात्मक तौर पर गलत, न ही किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ढेस पहुंचाने वाले थे. इसलिए, यह समझ के बाहर है कि कैसे यह सभी पोस्ट आचरण के सेवा नियमों, या सोशल मीडिया के इस्तमाल के लिए बने सरकार द्वारा निर्धारित दिशानिदेशों की अवज्ञा करते हैं.

यह एक गंभीर चिंता का विषय है कि इन सरकारी सेवकों को सिर्फ इसलिए दण्डित किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने अपने विचार अभ्व्यक्त किये, और समाज के दलित और शोषित वर्गों की परिस्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त करने का अपराध किया. कोई भी सेवा नियम ऐसी वाणी पर विराम लगता है; सच तो यह है कि भारतीय संविधान ऐसी ही बोलने की स्वतंत्र की स्पष्ट रूप से पुष्टि करता है.

सरकारी संस्थानों द्वारा ऐसी अभिव्यक्ति पर लगाम लगाना हमारे अधिकारिक तंत्र की बढती असहिष्णुता को ही उजागर करता है कि आज समाज में व्याप्त सामाजिक और धार्मिक महान्त्शाही की ज़रा सी भी आलोचना को कैसे तत्काल ही सरकार-विरोधी करार दिया जाता है, अत: खामोश करने के योग्य.

गौरतलब है कि जहाँ एक तरफ सरकारी प्राधिकारी इन उक्त सभी पोस्ट पर अति उत्साह से कार्यवाही की, वहीँ कई वरिष्ट अधिकारीयों द्वारा दिए गए सार्वजनिक बयानों पर उल्लेखनीय तौर पर खामोश रहे, जबकि ऐसे बयान न तो तथ्यात्मक थे, बल्कि मानहानिकारक, अपमानजनक और व्यकित्यों के प्रति अनादरपूर्ण भी, गोपनीय बयानों का धिंडोरा पीटने वाले और न्यायिक प्रक्रिया की अवमानना करने वाले.

1.    बस्तर के  कलेक्टर पद पर रहने के दौरान, अमित कटारिया ने अपनी फेसबुक पर एक अत्यंत ओछा, गैर-जिम्मेदाराना और एकदम झूठा इलज़ाम मड़कर लिखा था कि फरवरी 2016 में सोनी सोरी पर रासायनिक हमला मंच प्रबंधित हमला था, और वह भी उस समय जब इस हमले की जांच जारी थी. इसके अलावा, यह लेख उन्होंने उन गोपनीय बयानों के आधार पर लिखा जो पडोसी जिला दंतेवारा में पुलिस के समक्ष दिए गए थे, जिनको अभिगम करने का कोई भी अद्खिआर उनको नहीं था; और उनको मीडिया को यह जानकारी देने का तो कतई अधिकार न था जो उन्होनें जांच जारी होने के दौरान मीडिया को दे दिए थे. उनके खिलाफ कोई भी कार्यवाही नहीं की गई, उनको कोई नोटिस जारी नहीं किया गया, न ही उनको कोई क्षमायाचना करनी पड़ी, और न ही उन्हें कभी भी निलंबित किया गया था.

2.    जीतेन्द्र शुक्ल, सुकमा के उप-पुलिस अधीक्षक, ने व्हाट्सअप्प (WhatsApp) पर पत्रकारों के एक समूह को सन्देश भेजे कि कथित आत्मसमर्पित नक्सल्वादी पोडियम पांडा ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायलय, बिलासपुर के समक्ष यह बयान दिया था कि विशिष्ट वकीलों ने उनकी पत्नी का अपहरण कर उन्हें बंदी परिक्षण याचिका दायर करने मजबूर किया था. यह कि पोडियम पांडा ने उच्च न्यायलय के समक्ष ऐसा कोई बयान नहीं दिया था, यह सत्य केवल न्यायालय की कार्यवाही के रिकॉर्ड का अवलोकन करने से ही उजागर हो जाता है. फिर भी, इस उप-पुलिस अधीक्षक को इस तरह के पेटेंट झूट-फरेब फैला कर इन वकीलों की साख पर आंच लगाने और बदनाम करने को खुली छूट दी गयी, और न्यायलय की कार्यवाही की घोर अवमानना प्रदर्शित करने की गुस्ताखी करने का भी मौका दिया गया. सवाल है कि क्या वरिष्ट अधिकारीयों के आचरण के लिए बने दिश्निर्देशों का उल्लंघन और सेवा नियमों की अवज्ञा इस अफसर के द्वारा नहीं की गयी थी ?

3.  बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक और एक वरिष्ट आई.पी.एस.अफसर, एस.आर.पी. कल्लूरी ने बस्तर में तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ चुन-चुन कर गल्ली-गलौज/ कटूक्ति का सार्वजनिक तौर पर इस्तमाल किया. मीडिया के सामने उन्होनें सोनी सोरी को एक “बाजारू औरत” कहा, और घुले आम गीदम शहर के नगरवासियों को सोनी सोरी के वहिष्कार के लिए भड़काया, जहाँ सोनी सोरी निवास करती हैं. यह अत्याचारों की रोकथाम (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) अधिनियम, 1 9 8 9 की धरा 3(1)(zc)  के तहत  कानूनन एक संज्ञेय अपराध है. फिर भी, पुलिस महानिरीक्षक से अपने आचरण के बारे में कोई सफाई देने को नहीं कहा गया, और न ही कोई  स्पष्टीकरण जारी किया गया, और न ही उसके इस व्यवहार के लिए कोई नोटिस जारी किया गया.

इतना ही नहीं, आई.जी. कल्लूरी ने देश के कोने-कोने से महिलाओं से संचार के दौरान गली-गलौज की भाषा का इस्तमाल किया, जो बेला भाटिया नमक सामाजिक कार्यकर्ता की सुरक्षा की मांग कर रही थीं, जब उन्हें जगदलपुर के गुंडों द्वारा धमकाया जा रहा था. उनके द्वारा एस.एम्.एस. पर बिगडती परिस्थिति पर चिंता व्यक्त करने पर, उन्होंने गली-गलौज करते हुए अंग्रेजी में ऍफ़.यू. (“F U.”) लिखा. जबकि इसपर काफी होहल्ला मचा, फिर भी आई.जी. को अपनी नौकरी से निलंबित नहीं किया गया, न ही कोई नोटिस जारी किया गया, और न ही विभागीय जांच के दौरान उन्हें पदावनत किया गया – सिर्फ बस्तर रेंज से उन्हें रायपुर में पुलिस मुख्यालय में स्थानांतरित किया गया.

4.   बस्तर के ही पुलिस अधीक्षक, आई.के. एलेसेला, ने एक मोटर वाहन के शो रूम के समारोह के दौरान एक सार्वजनिक ऐलान किया कि मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, जैसे कि अधिवक्ता ईशा खंडेलवाल और अधिवक्ता शालिनी गेरा को सड़क पर रौंद देना चाहिए, जो सरकारी नीतियों का विरोध करते हैं. एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी द्वारा इस तरह नामित व्यक्तियों के खिलाफ हिंसा का खुला निमंत्रण देना, वह भी उस अफसर द्वारा जो जिले के सभी निवासियों की सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार हो, उस अधिकारी को भी निलंबित नहीं किया गया था. इस पुलिस अधीक्षक को बस्तर से राज्य ख़ुफ़िया विभाग में स्थानांतरित कर दिया गया, वह भी उसके पद में कोई भी बदलाव लाये बिना – जो स्पष्ट तौर पर उसके इन खतरनाक बयानों पर कोई दंडनीय कार्यवाही न होकर महज़ आलोचना से ध्यान बंटाने के लिए एक  विवर्तनिक रणनीति मात्र है.

ऊपर दर्शाए गया उदाहरणों से यह साफ़ है कि इन अधिकारीयों के खिलाफ जो रोष दर्शाया गया है उसके पीछे कोई अस्पष्ट दिशानिर्देशों या आचरण सम्बन्धी सेवा नियमों के उल्लंघन का मसला है, लेकिन उनके द्वारा यथा-स्थिति (status quo) को अपरिणामदर्शन चुनौती देने के कारण है, और हिंदुत्व (Hindutva) से परे हटकर किसी विचारधारा की वकालत करना या सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाना है.

प्रतेक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी को कायम रखने में पी.यू.सी.एल. विशवास रखता है – लेकिन इस आजादी का यह कतई मतलब नहीं कि वरिष्ट अधिकारी गलतबयानी, भ्रामक, अपमानजनक, भड़काऊ बयान देकर बच निकलेंगे. तथापि, इसका अर्थ यह है कि सरकारी अफसरों को भी यह आजादी मिली है कि वे उन सामाजिक यथार्थ पर अपने स्वतंत्र विचारों की वकालत कर सकते हैं जिनका सामना वे करते हैं, और उन्हें मनमाने तौर पर कुछेक आचरण के नियमो का हवाला देकर खामोश नहीं किया जाना चाहिए, जिन्हें असमान रूप से लागू किया जाता है.

डॉ. लाखन सिंह
अध्यक्ष
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अधिवक्ता सुधा भारद्वाज
महासचिव

अगस्त 15, 8 .2017

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