(नवभारत, छत्तीसगढ़-ओड़िशा में प्रकाशित )
भीड़ की क्रूरता से आँख फेरने का समय नहीं
गणेश तिवारी
04-07-2017 को प्रकाशित
रॉक बैंड बीटल्स के संस्थापक सदस्य और मशहूर गायक जॉन लिनन का कहना था, कल्पना कीजिए कि (आपका) कोई देश नहीं है, जिसके लिए मारा या मरा जाए. यह सोच पाना बहुत कठिन भी नहीं है. सोचिए कि कोई धर्म भी नहीं है. सब शांतिपूर्वक जीवनयापन कर रहे हैं. आप कह सकते हैं कि मैं कोरा स्वप्नजीवी हूं. लेकिन ऐसा केवल मैं ही नहीं हूं. मुझे उम्मीद है कि एक दिन तुम भी मेरे साथ खड़े नजर आओगे. उस दिन यह दुनिया एक हो जाएगी… युद्ध और हिंसा के विरोध में अलख जगाने वाले लिनन की मात्र 40 साल में हत्या हो जाती है. ऐसे ही न जाने कितने लोग हैं जिनके कारण हम आधुनिक सभ्य समाज के बारे में सही दिशा में सोच पाते है. लेकिन यह भी सच है कि इन मानवीय और लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों के बरस्क उन्माद और हिंसा के पैरोकार भी सिर उठाते आये हैं. स्वाधीन भारत में हम अक्सर अपनी सार्वजनिक असफलताओं व भटकावों पर चिंता व्यक्त करते रहते हैं. इन असफलताओं व भटकावों के पीछे जो कारण निहित हैं, उनमें से एक प्रमुख कारण यह है कि हम अपने अंतर्विरोधों को समाप्त कर, उनमें खप रही ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने में विफल सिद्ध हुए हैं.
अखलाक से लेकर जुनेद, अलीमुद्दीन उर्फ असगर अंसारी तक और श्रीनगर में उपपुलिस अधीक्षक अय्यूब पंडित की हत्या उन्मादी भीड़ कर देती है. आठ सालों में ऐसी 63 घटनाएं हुई जिनमें 28 भारतीयों की जान चली गई. यह गौ-वंश से जुड़ी हिंसा है तथा इनमें से 97 प्रतिशत घटनाएं सिर्फ तीन साल के दौरान हुई है. यह इंडिया स्पेंड रिपोर्ट के अनुसार साल 2017 में गाय से जुड़ी हिंसा के मामलों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है. इस साल से पहले छह महीनों में गाय से जुड़े 20 मामले हुए जो साल 2016 में हुई कुल हिंसा के दो-तिहाई से ज्यादा हैं.
पीट पीट कर बेकसूरों को मार डालती भीड़ की ये बर्बरता नई नहीं है. नई है इसकी चपेट. आज अगर एक किशोरवय जुनैद का हत्यारा कहता है कि लोगों ने उसे उकसाया, तो समझा जा सकता है कि भीड़ हमारे व्यवहार को नियंत्रित और संचालित कर रही है.
लोकतंत्र हमारे सार्वजनिक जीवन से अनुपस्थित होता जा रहा है. श्रीनगर में डीएसपी की हत्या करने वाली भीड़ का भी एक घिनौना चेहरा है जो हमेशा से समाज मौजूद रहा है और वह महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, गुजरात, हाशिमपुरा सहित पश्चिम बंगाल में सह नागरिकों पर कहर बनाकर टूटता रहा है. भीड़ जब एक घिनौनी नफरत भरी सांप्रदायिकता के साथ जमा होती है तो ये लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ ये एक आपराधिक अराजकता है. भारत में इसे समझना तो दूर, इसे राजनीति का हथियार बना लिया गया है. लोकतंत्र की हिफाजत का सवाल जब सामने आता है तो यह जानना सबसे जरुरी हो जाता है कि आखिर कैसे एक लोकतांत्रिक समाज की जागरूक नागरिकता उन्मादी और जघन्य भीड़ में तब्दील हो सकती है? उन कारणों की पड़ताल कब होगी जो आधुनिक समाज को कबीलाई स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता की धकेल रही है. फ्रांसीसी विचारक ज्यां पाल सार्त्र ने ठीक ही कहा है कि कितने लोग मारे गए इससे फासीवाद परिभाषित नहीं होता बल्कि किस तरह मारे गए से होता है.
फिलहाल कुछ असामाजिक तत्व माहौल बिगाड़ रहे हैं और सामाजिक तानेबाने को तोड़ रहे हैं. कहीं न कहीं इन्हें संरक्षण मिला हुआ है. इन्हें न तो किसी कानून का खौफ है और न किसी समाज का. यह समझना अब उतना दुष्कर कार्य नहीं है कि सत्ता हासिल करने के प्रयोगों के दौरान ऐसी प्रवृत्तियां उद्देश्य प्राप्ति में सहायक सिद्ध हो रही हैं, जिसे ख़त्म करने में नहीं, बल्कि जारी रखने में एक ख़ास किस्म की राजनीति की दिलचस्पी है.
खूंखार हो चुकी भीड़ के मुकाबले वह भी भीड़ है जो अन्याय के विरूद्ध खड़ी होती है. निर्भया कांड का प्रतिवाद सहित केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात से लेकर हरियाणा और उत्तराखंड आदि राज्यों में अलग अलग समयों में अलग अलग आंदोलनों की आग में कूदी जनता संगठित नहीं थी, अपितु उसे भीड़ का सकारात्मक रूप कहा जा सकता है.
सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन जो घातक प्रवृत्तियां पनपी हैं उसकी धार कुंद करने में बहुत समय लगेगा, नागरिक विवेक की बहाली ही एकमात्र रास्ता हो सकता है. राष्ट्र, धर्म, रंग, जाति आदि के आधार पर पनपती भीड़ आधुनिक भारत की आत्मा को निगलने के लिए आकुल है, उस पर आधी चुप्पी, आधी कार्रवाई से कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जा सकती. अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी सहित विश्व के अनेक देशों में हेट क्राइम का इंसानियत विरोधी दौर में बड़े अभियान की जरुरत है जो मानवता पक्षधर हो.
इतिहास में आईने में भीड़ का आतंक
– भीड़ का सबसे भयानक आतंक नेपोलियन के समय वित्त मंत्री गिस्पे प्रीना द्वारा गाहे-बगाहे कर लगाने के कारण 1814 में मिलान में दंगा फैला और गिस्पे प्रीना हत्या कर दी गई.
– 1780 में वर्जीनिया में श्वेत-अश्वेत की हिंसक भीड़ के संघर्ष लगभग 5 हजार लोग मारे गए थे.
– 1949 और अगस्त 1985 में दक्षिण अफ्रीका में क्रमशः 142 और 55 भारतीयों को भीड़ द्वारा मार डाला गया.
– रूस में जार शासक अलेक्जेंडर द्वितीय के समय 1903 से 1906 के बीच लगभग दो हज़ार से अधिक यहूदी भीड़ द्वारा मारे गए.
– ब्रिटेन में 1919 में हुए नस्ली दंगे को प्रमुखता से याद किया जाता है. लीवरपुल के एक पब में एक अफ्रीकी द्वारा दो गोरों को चाकू मार देने के बाद राह चलते अश्वेतों को भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ा था.
– हिटलर के दौर में सरकारी संरक्षण में हिंसा कराने की कहानी लंबी है.