⚫ रवीश कुमार
2014 का चुनाव याद कीजिए. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ कैंपेन चल पड़ा था. इस कैंपेन की चुनाव के दौरान धुलाई नहीं हो सकी. उस स्लोगन के बहाने जो लिखा गया, जो गाया गया मतदाता के बड़े वर्ग का वो गीत बनता चला गया.
Ndtv : March 18, 2019
चुनाव शुरू हो चुका है. अभी तक कैच लाइन का पता नहीं है. बल्कि कैच लाइन वालों को मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है. हो सकता है अभी आगे के लिए बचा कर रखा हो, मगर जो आ रहा है उसमें मज़ा नहीं आ रहा है. 2014 का चुनाव याद कीजिए. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ कैंपेन चल पड़ा था. इस कैंपेन की चुनाव के दौरान धुलाई नहीं हो सकी. उस स्लोगन के बहाने जो लिखा गया, जो गाया गया मतदाता के बड़े वर्ग का वो गीत बनता चला गया. कायदे से स्लोगन तो यही हो सकता था कि अच्छे दिन आ गए हैं, अब आगे बहुते अच्छे दिन आने वाले हैं. विपक्ष ने भी अच्छे दिन कहां है, पूछ-पूछ कर पुराना कर दिया है और सत्ता पक्ष भी इससे बोर हो गया होगा. तभी तो पहले ‘मोदी है तो मुमकिन’ है लॉन्च हुआ. अगर वो जुबान पर चढ़ा होता तो ‘हां मैं भी चौकीदार हूं’ लॉन्च नहीं होता.
इस चुनाव में विपक्ष को बिखरा हुआ दिखाया जा रहा है मगर बीजेपी का सबसे बड़ा कैंपेन लांच हुआ उस पर राहुल गांधी के आरोप की छाप है. राहुल गांधी ने ही राफेल मामले को लेकर प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया कि ‘चौकीदार चोर है.’ इस स्लोगन का संदर्भ राफेल और अनिल अंबानी हैं. क्या इसके जवाब में सब खुद को अंबानी का चौकीदार घोषित कर रहे हैं? अंबानी भी घबरा जाएंगे, वैसे ही दिवालियापन से गुज़र रहे हैं. इतने सारे चौकीदार आ गए और न्यूनमत मजदूरी मांगने लग जाएं तो मुश्किल हो जाएगा. एक क्वेश्चन और है. पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री कह चुके थे कि वे दिल्ली में चौकीदार हैं. पांच साल में वे चाहते तो चौकीदारों के लिए क्या नहीं कर सकते थे. अगर पांच साल में चौकीदार थानेदार नहीं हुआ तो मतलब यही है कि सिस्टम रूका हुआ है. इस चुनाव में स्लोग सूबेदार हो सकता था या हवलदार हो सकता था. मेरी राय में कैच लाइन जिसने लिखी है उसकी पेमेंट रोक देनी चाहिए.
इससे तो अच्छा था कि अच्छे दिन आ गए. अच्छे में क्या बुराई है समझ नहीं आ रहा है. दार एक प्रत्यय है. नए शब्द बनाने के काम आते हैं. दुकान से दुकानदार हुआ. ईमानदार से ईमानदार हुए, बल्कि प्रधानमंत्री ने खुद को ईमानदार क्यों नहीं कहा चौकीदार की जगह, वही बता सकते हैं. माल से मालदार किसी ने नहीं कहा, जबकि यह भारत के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव है. किरायेदार तो छोड़ी वो इस बहस में ही नहीं है. कुछ और शब्द है जो स्लोगन लिखने वाले किसी भी राजनीतिक दल को ठग कर पैसा कमा सकते हैं, बदल में राजनीतिक दल जनता को ठग कर उसके बाद कमा लेंगे. ज़मींदार, जोतदार, बेलदार, सूबेदार, सेवादार, फोतेदार, नम्बरदार, तहसीलदार, हवलदार, दफ़ादार, अमलदार. थानेदार बुरा न मानें. पुलिस चौकी उपेक्षा का शिकार रही है. पहले उसकी बारी आएगी फिर थाने के थानेदार की और अंत में वफ़ादार तो हैं ही. नारों की फैंन्सी ड्रेस पार्टी में कब कौन क्या बनकर चला आए बस यही ध्यान रखना है कि यह चुनाव है, फैंसी ड्रेस पार्टी नहीं है. बहुत घुटन हो तो एक हवादार शब्द भी है. कमरा हवादार होना चाहिए.
ब्रांड की एक मजबूरी होती है. उसके पैकेट का रंग बदलना होता है. स्लोगन भी बदलना होता है. टूथपेस्ट वही होता है मगर हर दो साल बाद नया जोड़ना ज़रूरी हो जाता है. वैसे मैं भी चौकीदार वाला कैंपेन चल ही गया, क्योंकि इसमें विरोधी और समर्थक दोनों शामिल हो गए आमने-सामने हो गए. इसकी चर्चा हो गई. मोदी हैं तो मुमकिन फीका पड़ गया इसके सामने.
प्रधानमंत्री ने जैसे ही कहा कि मैं चौकीदार हूं. अपने ट्विटर हैंडल के नाम के आगे चौकीदार जोड़ दिया. जवाब में राहुल गांधी ने उन भागे हुए लोगों के साथ पीएम का फोटो लगाकर ट्वीट कर दिया कि इन लोगों के चौकीदार हैं. फिर क्या था ट्विटर पर खलिहर लोगों का मैच शुरू हो गया.
इसी बीच एमजे अकबर चौकीदार बनकर लॉन्च हो गए. रेणुका सहाने ने ट्वीट कर दिया कि लो जी, अगर आप भी चौकीदार हैं तो कोई महिला सुरक्षित नहीं हैं. बस कैंपेन डिबेट में शामिल प्रो एंड एंटी दोनों अकबर के पीछे चल पड़े. प्रिंट ने खबर छापी की अकबर ने चौकीदार हटा लिया, मगर हमने जब चेक किया तो अकबर चौकीदार ही थे. खोज होने लगी कि किस मंत्री ने खुद को चौकीदार कहा है. जैसे वर्ल्ड कप और आईपीएल के समय टीम की जर्सी फैन को बेच दी जाती है वैसे ही पोलिटिक्स में स्लोगन अपने समर्थकों को बेच दिया जाता है.
पिछले चुनाव में मोदी मास्क बिका था. उस चुनाव में मास्क पहनने वालों को इस चुनाव में चौकीदार बना दिया गया है. खैर चुनावों में ये सब चलता है. अगर आप मतदाता हैं तो आपको किसी के भी स्लोगन से प्रभावित होने की ज़रूरत नहीं है. आपको देखना चाहिए कि मुद्दा क्या है. आने वाले दिनों में सरकारी नौकरियां कांट्रेक्ट पर होंगी, जहां आप आधे से कम वेतन पर काम करेंगे, कोई सुविधा नहीं मिलेगी, कॉलेज में मास्टर होंगे या नहीं, इन सब पर सोचिए वर्ना स्लोगन लिखने वालों का क्या. वो अपनी कैच लाइन आपको कैच कराकर, बड़ी लाइन से मुंबई चले जाएंगे. बहुत दिनों से आपने चौकीदार को नहीं देखा होगा. हमारे सहयोगी अनवर ने मुरादाबाद से एक चौकीदार का हाल भेजा है.
जब आप चौकीदारों की हालत देखेंगे तो फिर मज़ाक नहीं करेंगे. न ही इनका चुनावी इस्तमाल करेंगे. जब शहर बड़े हो रहे थे तब सुरक्षा की ज़रूरतें भी बढ़ रही थी. इससे एक बाज़ार बना और गांवों के लाखों लोग रंग बिरंगी बर्दी में सिपाही बनाकर हाई फाई सोसायटी और कालोनियों के गेट के बाहर खड़े कर दिए गए. 12-12 घंटे की ड्यूटी, कम वेतन और बैठने से लेकर पेशाब करने की सुविधा तक नहीं. फिर भी अपनी वर्दी के रंग को देखकर आधे सिपाही, आधे सैनिक के अहसास से जीते रहे. सिक्योरिटी गार्ड कहते हैं. चौकीदार नहीं. हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा ने कुछ गार्ड से बात की. हम चेहरा और पहचान नहीं दिखाना चाहते. मगर जो हाल है वो सुन लें फिर आप अपने लिए नहीं, किसी स्लोगन राइटर के कैंपेन के लिए नहीं, इन चौकीदारों के लिए चौकीदार बनिए. मज़ाक मज़ाक में आप लाखों लोगों का भला कर देंगे.
सरकार ने जो न्यूनतम मज़दूरी तय की है उसके हिसाब से भी इन चौकीदारों को वेतन नहीं मिलता है. दिल्ली में जो न्यूनतम मज़दूरी है उसके हिसाब से इन्हें 14000 रुपया मिलना चाहिए, लेकिन इन्हें दस हज़ार मिलता है. इनकी मांग है कि 600 रुपये प्रति दिन मिले. यानी 18,000 रुपये मासिक सैलरी हो, बल्कि यही अच्छा मौका है. इस चुनाव में लाखों चौकीदार अगर 18000 की सैलरी के लिए सड़क पर उतर आएं तो एक मुद्दा तो बन ही जाएगा. असली चौकीदार 10 रुपये को तरसे और करोड़पति लोग चौकीदार बनकर घूमे, यह चुनाव है, फैन्सी ड्रेस पार्टी नहीं है. सिर्फ सरकार ही नहीं, आप सभी अपनी अपनी सोसायटी में गार्ड की हालत का पता कीजिए. एक और गार्ड की व्यथा सुनिए. ये 8 साल से चौकीदारी कर रहे हैं.
चौकीदारों का इस नारे के बहाने प्रधानमंत्री से पूछना, इस नारे का मज़ाक उड़ाने वालों से कहीं ज्यादा बेहतर है. ऐसा तो है नहीं कि सिक्योरिटी एजेंसी चलाने वाले प्रधानमंत्री के समर्थक नहीं होंगे. कम से कम से वही लोग इनकी सैलरी 18000 कर दें और महीने में चार छुट्टी कर दें तो कमाल हो जाए. वो अपना बहीखाता पब्लिक में ट्वीट कर दें पर याद रहें कि हम जानते हैं कि उनसे दस्तखत 15000 पर कराया जाता है और सैलरी दी जाती है 10,000. ऐसे लोगों को ट्वीट करना चाहिए कि मैं भी चौकीदार, मेरी एजेंसी चौकीदार की, और मेरी एजेंसी में सैलरी 18000 की. सुशील कुमार महापात्रा लोगों से पूछ रहे थे कि मुद्दे कैसे बने.