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‘शर्म’ वाली तस्वीर पर सरकार का ‘गर्व’

इसी महीने 26 तारीख की ढलती दोपहर प्रदेश की राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार प्रफुल्ल ठाकुर ने अपनी फेसबुक पर थाली की जगह अखबार के पन्ने पर मजदूरों को खाना दिए जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. अपनी इस पोस्ट से उन्होंने छत्तीसगढ़ के कोरेनटाईन सेंटर्स की बदहाली और वहां मजदूरों से किए जा रहे अमानवीय बर्ताव की तरफ़ सरकार का ध्यान लेजाने की कोशिश की. स्थितियों में सुधार और इस मामले के दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई की मांग भी उन्होंने की.

कवर्धा जिले के सहसपुर लोहारा के सरस्वति शिशु मंदिर क्वारेन्टीन सेंटर की इस तस्वीर ने प्रदेश में प्रवासी मजदूरों के साथ हो रहे व्यवहार और भूपेश सरकार के तमाम दावों का कच्चा-चिटठा खोल दिया. देश के बड़े मीडिया संस्थानों ने प्रफुल्ल की इस तस्वीर पर खबर चलाई.

ख़बरें न भी चलाई जातीं अगर तब भी भूपेश सरकार को इस, और इसके जैसे दुसरे मामलों पर तुरंत संज्ञान लेना चाहिए था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अब तक न इंतज़ाम दुरुस्त किए गए हैं न लापरवाही के दोषियों पर कार्रवाई की गई है.

ख़बर से जुड़े ज़िम्मेदार पत्रकार की तरह प्रफ़ुल्ल ने आज उस पोस्ट की फॉलोअप पोस्ट भी चलाई है. खबर ज़रूरी है इसलिए आपको भी फिर से पढ़नी चाहिए

‘शर्म’ वाली तस्वीर पर सरकार का ‘गर्व’



जिस तस्वीर को देखकर मुझे अपने इंसान होने पर घिन आने लगी। देश-प्रदेश के लोगों का दिल दहल गया। उस तस्वीर पर छत्तीसगढ़ सरकार को शायद ‘गर्व’ महसूस हो रहा। कवर्धा के सहसपुर लोहारा के सरस्वती शिशु मंदिर क्वारेन्टीन सेंटर में मजदूरों को अखबार में चावल, दाल, सब्जी खिलाने के मामले में अब तक न कोई जांच हुई है और ही जिम्मेदारों पर किसी तरह की कोई कार्रवाई।

26 मई को मैंने अपने फेसबुक पर इस तस्वीर को इस उम्मीद के साथ पोस्ट किया था कि इस पर राज्य सरकार की नज़र पड़ेगी और क्वारेन्टीन सेंटर्स की व्यवस्थाओं में सुधार होगा। साथ ही इस तरह का अमानवीय कृत्य करने वाले जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई होगी, ताकि वे दोबारा किसी भी व्यक्ति के साथ ऐसा बर्ताव न करें।

मगर अफ़सोस की ऐसे कृत्य के बाद भी सरकार अपने अधिकारियों के साथ खड़ी है। इसका मतलब यह है कि अधिकारियों के इस कृत्य पर सरकार की सहमति है। उसे न तो कोई अफसोस है और ही शर्मिंदगी महसूस हो रही है। सरकार अगर इस तस्वीर पर थोड़ा भी शर्मिंदा होती तो जांच और जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई जरूर करती।

जहां तक मुझे जानकारी है, क्वारेन्टीन सेंटर में मजदूरों को अखबार में चावल, दाल, सब्जी इसलिए परोसी गई, क्योंकि वहां डिस्पोजल थाली या प्लेट्स नहीं थे। क्यों नहीं थे ? इसका जवाब जिम्मेदार अधिकारी और सरकार ही दे सकती है। मजदूर बहुत भूखे थे, उन्होंने अखबार के पन्ने पर ही खाना खा लिया। बिना किसी विरोध के। अमीरों की भूख थाली, चम्मच और प्लेट का इंतजार कर लेती है। गरीब की भूख थी, जमीन पर ही खिला दिया तो भी खा लिए।

राज्य में जब नई सरकार बनी तो सबको उम्मीद जगी की यह सरकार कुछ अलग करेगी, नया करेगी। इसके काम करने का तेवर कुछ अलग होगा। यह गरीबों और कमजोरों की सरकार होगी। मगर, अफसोस कि यह सरकार भी पिछली सरकार की तरह ही निकली। बल्कि पिछली सरकार ऐसे मामलों में ज्यादा गंभीर और संवेदनशील थी। अगर यह मामला पिछली सरकार का होता तो अब तक जांच और कार्रवाई दोनों हो चुकी होती। मगर इस सरकार के कान में अभी तक जूं नहीं रेंगी है और शायद रेंगेगी भी नहीं।

मजदूर, मजबूर थे। भूख और आत्मसम्मान में से उन्होंने भूख को चुन लिया। उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। मगर मजदूरों के आत्मसम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी प्रशासन और सरकार की थी। प्रशासन और सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। इस मामले की जांच हो या न हो, कार्रवाई हो या न हो, मगर प्रशासन और सरकार गरीब, भूखे मजदूरों के आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकी, इस बात को न तो मैं भूलूंगा, न लोग और न ही इतिहास।

धन्यवाद।।

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