प्रस्तुत कर रहा हूँ कवि *अनिल करमेले* की एक कविता । अनिल करमेले का एक कविता संग्रह *ईश्वर के नाम पर* मध्यप्रदेश शासन के *दुष्यंत कुमार स्मृति पुरस्कार* से पुरस्कृत है ।
शरद कोकास
|| *मुझे तो आना ही था* ||
(अजन्मी बेटियों के लिए)
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मैंने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की
कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और मेरे रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था
भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
मैं नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में थी
मगर माँ की पीली पड़ गई आँखों में
अँधेरा भर गया था
मैंने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
मैं जानती थी पूरा कुनबा
कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
मगर मुझे तो आना ही था
मैं सुन रही हूं माँ की कातर कराह
और देख रही हूं कोने में खड़े उस आदमी को
जो मेरा पिता कहलाता है
उसे देखकर लगता है
जैसे वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है
मैं जानती हूँ इस आदमी को
इसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ ओंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
बस अपने तुच्छ लाभ के फेर में
चालाकी चापलूसी और मक्कारियों में उलझा रहा
यह उसके लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे पौरुष का सवाल है
जो सदियों से इनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा
उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी.
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- कविता: *अनिल करमेले*
प्रस्तुति: *शरद कोकास*
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