महाराष्ट का एक अनोखा त्योहार : भुलाबाई / शरद कोकास
सोचिये वह सास कितनी क्रूर होगी जो बहू द्वारा मायके जाने की इच्छा प्रकट करने पर कहती हो “ऐसा करो पहले बाड़ी में करेले के बीज बो दो फिर मायके चली जाना ।” “बस इतनी सी बात ! अभी बो देती हूँ।” बहू कहती।
फिर जब बहू बीज बो देती है तो सास कहती है “तनिक रुक जाओ..अब करेले की बेल बढ़ जाने दो फिर मायके चली जाना ।”
जब बेल भी बढ़ जाती है तो सास फिर कहती है “अरे! उसमे फूल तो आने दो ” फिर कहती है “इतनी भी जल्दी क्या है ज़रा करेले तो उग जाने दो ।” हे भगवान ..यह तो अन्याय है । बहू के धैर्य की परीक्षा।
बात यहीं खत्म नहीं होती । अंततः जब तक बेचारी बहू करेले की सब्जी बनाकर अपनी सास को खिला नहीं देती और जूठन समेट कर बर्तन धोकर नहीं रख देती और सास के पाँव नहीं दबा देती , उसे मायके जाने नहीं मिलता । लेकिन अंत मे बहू अपना गुस्सा भी प्रकट करती है।
सासुबाई-सासुबाई मला मूळ आलं
जाऊ द्या मला माहेरा-माहेरा
कारल्याची बी पेर गं सुनबाई
मग जा आपल्या माहेरा-माहेरा
कारल्याची बी पेरली हो सासुबाई
आता तरी जाऊदया माहेरा-माहेरा
कारल्याचा वेल वाढू दे ग सुने वाढू दे ग सुने
मग जा तू आपुल्या माहेरा माहेरा
दरअसल यह मराठी के एक लोक गीत का आशय है । यह गीत और ऐसे ही जाने कितने लोकगीत महाराष्ट्र के इस अनोखे त्यौहार में गाये जाते हैं जिसे सिर्फ स्त्रियाँ ही मनाती हैं इसका नाम है ‘भुलाबाई’ ।
ऐसा माना जाता है कि पार्वती यानी गर्भवती भुलाबाई विजया दशमी के दिन अपने पति शंकर यानि भुलोबा के साथ मायके यानि दक्ष हिमराज के यहाँ आती हैं । इसी प्रतीतात्मकता को लेकर यह त्योहार मनाया जाता है।
गाँव शहर की कुआँरी लड़कियां घर घर में पांच दिन इनकी प्रतिमा स्थापित करती हैं । फिर टोलियों के रूप में वे हर शाम सबके यहाँ जाती हैं ऐसे ही ढेर सारे गाने गाती हैं और फिर प्रसाद वितरण होता है । पांचवे यानि अंतिम दिन उत्सव समाप्त हो जाता है यानि शरद पूर्णिमा के दिन पार्वती वापस ससुराल आ जाती है ।
मैं भी बचपन में इन पाँच दिनों में लडकियों के साथ भुलाबाई के गाने गाने जाया करता था प्रसाद का लालच तो था ही गाना मुझे बहुत अच्छा लगता था । फिर गाने भी सब याद हो गये थे जो अब तक याद हैं ।बड़े होकर जब मैंने इन गीतों के कथ्य पर विचार किया तो मुझे इनमे बहुत सी बातें नज़र आईं ।
विशेष बात यह कि यह भक्ति गीत नहीं हैं इन लोकगीतों में स्त्री की व्यथा है , उसके दुःख हैं , प्रसव पीड़ा के समय उसे क्या महसूस होता है , पति सास ससुर द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर वह क्या महसूस करती है आदि आदि । जब वे प्रत्यक्ष रूप से अपने दुःख , अपनी इच्छाएँ प्रकट नहीं कर सकतीं तो इन गीतों में करती हैं ।
स्त्रियाँ भी कितनी समझदार होती हैं ना। अपने दुःख प्रकट करने के लिए, समाज के प्रति अपने शोषण उत्पीड़न की शिकायत करने के लिए भी उनके पास लोक का ही आलंबन है ।
दुख तो दुख है एक दिन तो फूटेगा ही , चाहे आंसुओं में चाहे गीतों में । जब दुख की इंतहा हो जाएगी तो वह आक्रोश बन जायेगा ।
शरद कोकास
(चित्र में घर में स्थापित भुलोबा भुलाबाई और उनका बेटा गणेश यह चित्र मुझे भंडारा से मेरी बहन माया देशमुख ने भेजा है ।)