कविता श्रंखला – मस्तिष्क – चार
संवेदना
पृथ्वी की अनगिनत परतों की तरह
अभी अनछुए हैं संवेदना के कई गहरे धरातल
अभी अटका है मनुष्य अपनी सभ्यता में
सिर्फ दिखाई देने वाली ऊपरी सतह पर
छुपा है सहनशीलता के एक छद्म आवरण के भीतर
बड़ी बड़ी घटनाओं की आशंका से भरे जीवन में
किसी भी क्षण घटित होने की सम्भावना लिए
मंडराती हैं छोटी-मोटी घटनाएँ
जिनके घटित होते ही
मस्तिष्क का सोमेटोसेंसरी क्षेत्र सक्रिय हो उठता है
उष्मा,प्रकाश, ध्वनि,पदार्थों के अणु
ज्ञानेन्द्रियों पर प्रभाव डालते हैं
विद्युत रासायनिक आवेग के रूप में
तंत्रिका मार्ग से पहुँचते हैं मस्तिष्क के इसी केन्द्र में
महात्माओं सा धैर्य धारण करने वाला मनुष्य भी
तिलमिला उठता है एक मच्छर के दंश से
ज़रा सी चोट लगते ही कराह उठता है
चिहुंक कर हाथ खींच लेता है
भूल से गरम वस्तु पकड़ लेने पर
आँख में धूल जाते ही आँख मलता है
असंख्य तंत्रिकाओं के विशाल जाल में
यह इन्द्रीय संवेदनाओं का केन्द्र है
वस्तुगत जगत की वस्तुओं में अंतर्निहित गुण
यहीं से महसूस करते हैं हम
तप्त देह पर पड़ी बूंद से उपजी सिहरन
शीश पर हाथों के स्नेह भरे स्पर्श का सुख
प्रेम में पगे चुम्बन का रोमांच
पाँव में चुभे काँटे की चुभन
गाल पर पड़े तमाचे की जलन
यहीं से अनुभूतियाँ अपने होने का प्रमाण देती हैं
अपनी संवेदना के असीमित विस्तार में
यहाँ से महसूस कर सकते हैं हम संवेदन की गहनता
अपने अलावा औरों के दुख भी
यहीं से महसूस कर सकते हैं हम
और उनके शरीर पर पड़ रहे कोड़ों की मार भी
अपने शरीर पर महसूस कर सकते हैं .
शरद कोकास
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