राजकुमार सोनी ,वरिष्ठ पत्रकार
छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक पेड़ा बेचने वाला बूढ़ा था. सफेद पैन्ट-सफेद शर्ट, सिर पर सफेद टोपी. बिल्कुल राजकपूर वाली. हाथ में छड़ी और कंधे पर टिन का डिब्बा. डिब्बे में लगा सुंदर सा कांच और कांच के भीतर से झांकते हुए पेड़े. यह बूढ़ा जब भी सड़क से गुजरता तो तुकबंदी करता-
भिलाई में आया… पेड़ा नहीं खाया. भिलाई में कायकू आया… अगर पेड़ा नहीं खाया.
अगर कोई बच्चा पेड़े वाले को छेड़ दे तो फिर जवाब मिलता था- क्यों मां-बाप ने यहीं सिखाया.पेड़ा नहीं खाया. फालतु काय को आया?
बूढ़ा कौन था? क्या था ? इस बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम…। जब भी इधर-उधर से कुछ मालूम करने की कवायद की तो इतना पता चला कि बूढ़ा एक झोपड़ी में रहता है. बाल-बच्चों ने घर से निकाल दिया है. बूढ़े की झकाझक सफेद ड्रेस और वाइट कलर की हेट देखकर कुछ लोग उसे दूसरे देश का जासूस भी बताते थे? लेकिन मुझे नहीं लगता बूढ़ा कोई जासूस होगा? जासूस पेड़ा क्यों बेचेंगा? उस समय मोदी कहीं रहे होगें अन्यथा यह तय था कि गरीब पेड़े वाला पाकिस्तान का जासूस निकल जाता. वैसे जो लोग भिलाई के रहने वाले हैं वे एक गूंगे लड़के भी वाकिफ होंगे. दुबला- पतला बिल्कुल रंगकर्मी सुप्रियो सेन जैसा नजर आने वाला यह लड़का हर जगह नजर आता था. कहीं कोई घटना घटी… अगर आप उस जगह से गुजर रहे हैं तो गूंगा आपको ऊं आ… ऊं आ करते हुए मिल जाएगा. बताते हैं कि यह गूंगा पुलिस के लिए मुखबिरी का काम का करता था. हर थाने में उसकी दखल थीं. थानेदार और पुलिस वाले उसे अपने साथ लेकर चलते थे. गूंगे को अभिताभ बच्चन की फिल्मों का शौक था. जब भी अमिताभ की फिल्म लगती वह बिल्कुल अभिताभ स्टाइल में टाकीज पहुंच जाया करता था. अच्छी-खासी भीड़ को चीरकर वह सीधे गेटकीपर या मैंनेजर से मिलता और ऊं आ… ऊं आ करके फिल्म देखने बैठ जाता था.
यूं तो भिलाई में एक बेर बेचने वाला भी गाना गाते हुए सड़क से गुजरता था- बेर लो…बेर लो…बेर लो… तेरे- मेरे नसीबों का? हम सबके नसीबों का ? छिटकना भई छिटकना… बाबू भैया छिटकना… चले आव-चले आव.
एक मरियल- खपियल सी साइकिल में दो बड़े से झोले में नड्डा लेकर एक शख्स और नजर आता था. नड्डे को ऊंगली में फंसाकर खाने का मजा ही कुछ और था. वैसे भिलाई में एक बहुत ही शानदार रंगकर्मी का नाम नड्डा है. एक किसी बड़े नेता जी का सरनेम भी नड्डा है, लेकिन मुझे नड्डे का पीला कलर और नेताजी की पार्टी के झंडे का कलर पंसद नहीं हैं इसलिए नड्डा खाना बंद कर दिया है. गांव और कस्बों के बाजारों में नड्डा अब भी मिलता है. अब भी बहुत से प्रगतिशील और जनवादी लोग चखने में नड्डे का उपयोग करते हैं. जो लेखक मित्र दारू के साथ नड्डे का प्रयोग करते हैं, उन्हें देखकर गाने का मन करता है- समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई.
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