
नासिर अहमद सिकंदर के इस कविता संग्रह “अच्छा आदमी अच्छा होता है” का समीक्षात्मक विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं कवर्धा के अजय चंद्रवंशी
अच्छा आदमी होता है अच्छा : अल्पतम में महत्तम की कविताएं
कविता स्वाभाविक रूप से कवि और पाठक के बीच संवाद है. कवि अपनी बात कहकर भले ‘मुक्त’ हो जाता है, मगर उसकी ‘मुक्ति’ सही अर्थों में पाठक तक उसकी बात पहुंच जाने में होती है.यूँ पाठक की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह कवि की बात को समझने का प्रयास करे. इस समझने-समझाने की अन्तःक्रिया में कविता के भाषा-शिल्प की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. यह जितना ही सहज होगा; उतना अधिक संप्रेषित होगा. ठीक है मात्र सम्प्रेषणीयता उत्कृष्टता का मापदंड नही है, क्योकि ‘कैसे कहा जा रहा है ‘के साथ ‘क्या कहा जा रहा है ‘अनिवार्य रूप से जुड़ा है. फिर भी हिंदी का बहुसंख्यक पाठक वर्ग अभी शिक्षा के जिस स्तर पर है, वहां कहन की ‘सहजता’ अधिक प्रभावी होती है. यही कारण है कि प्रगतिशील काव्य धारा में इस पर जोर दिया जाता रहा है.
नासिर अहमद सिकन्दर भी इसी परंपरा के कवि हैं. यों ‘तुकों की ताकत और गीतात्मकता को सर्वाधिक महत्व देने वाले कवि केदारनाथ अग्रवाल ‘उनके प्रिय रहें हैं. स्वाभाविक है नासिर अहमद की कविताओं में भी यह ‘ताकत’ उपस्थित है. यहां कविता का उद्देश्य चमत्कृत करना नही, बल्कि “जीवन का जीता जागता चित्र” प्रस्तुत करना है. ऐसी कविताएं जाहिर है समाज का चेहरा दिखाती हैं. यह केदार, नागार्जुन, फ़ैज़ की परंपरा है; यही ‘कवि का कुल’ है. मगर विडम्बना! यह कुल इस कठिन काल मे भी “आकुल न व्याकुल / शांत बिल्कुल” ?
जागरूक कवि अपने समय की राजनीति से पृथक नही रह सकता, उसकी काव्य-सम्वेदना उसके राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावित होता ही है. राजनीति की विडंबना यह है कि वह अपने दायित्वों का सही निर्वहन नही कर रही, वह केवल “भौं भौं और कांव कांव की राजनीति” रह गयी है. जिनसे कुछ उम्मीदें थीं, वे भी बिखर गए हैं. अब विश्व के मानचित्र पर केवल एक देश का ही नक्शा दिखाई देता है. ऐसे में कवि कर भी क्या सकता है इस व्यवस्था पर हँसने के सिवा. मगर इस ‘हँसी’ के पीछे गहरी सम्वेदना है उन लोगों के प्रति जो रोजी-रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं,जो खेतों, मिलों में श्रम कर रहे हैं, छोटे-छोटे काम-धंधों में लगे हैं, जिनकी आवश्यकताएं भी छोटी-छोटी होती हैं.चूँकि कवि ख़ुद इसी वर्ग का नागरिक है, इसलिए उसका जुड़ाव स्वभाविक रूप से होता है.
कवि अपने समय की विसंगतियों को देखता है और आहत होता है, मगर ऐसा नही कि उसकी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं, वह स्वप्न देखता है “कि एक कबूतर आकाश में उड़ रहा था / और एक राष्ट्र की उन्नत तकनीक / उसकी राडार शक्तियां / उसे पकड़ने का यत्न कर रहीं थीं / स्वप्न सुंदर इस लिए था / कि वह / पकड़ से बाहर था. उस शक्तिशाली राष्ट्र के लिए अभी ‘कबूतर’ चुनौती बना हुआ है. कवि को मालूम है हम जो अन्न खाते हैं “उसे हम न आप / न किसी साहब के बाप / बल्कि पसीना बहाते / किसान उगाते. वह प्रश्न करता है “आदमी तुम भी / आदमी हम भी ” मगर “तुम अमीर / हम ग़रीब क्यों?”
कवि अपने परिवेश की ‘दुनियां’ को देखता है; जो बहुत ‘सामान्य’है, वहां के लोग सामान्य हैं. जहां छोटे बच्चे-बच्चियां हैं, नौकरीपेशा वर्ग है, पति-पत्नियां हैं, किसान हैं, श्रमिक हैं. उसका सौंदर्यबोध बोध इसी सामान्य जीवन का है, जहां बारिश में भींगते बच्चों का सौंदर्य हौ, जहां मां के लिए ‘धूल-धूसरित’ बच्चा ‘राजकुमार’ है.
संग्रह में बच्चियों पर कई कविताएं हैं जिनमे उनकी मासूमियत, किशोरवय के बदलाव, मौजूदा समाज व्यवस्था में व्याप्त आशंकाएं, पुरुषवाद, प्रकट हो रहे हैं. लेकिन यहाँ गृहस्थी भी है; पति-पत्नी का प्रेम भी है. इसी तरह मजदूर, किसान, निम्न मध्यम वर्ग के व्यक्तियों के जीवन के कई चित्र हैं.
ये कविताएं आकार में लघुता लिए, कहन में बिना लाग-लपेट के अपनी बात कह रही हैं. यहां जीवन के विविध राग-रंग, सुख-दुख, आशा-निराशा हैं. कवि की दृष्टि मामूली सी लगने वाली घटनाओं और दृश्यों पर ठहरती है, कहन का अंदाज एकदम बातचीत की शैली में है, जहां ‘बड़ी-बड़ी’ बातें भी सहज ढंग से कह दी गई हैं. इन कविताओं में कवि की पक्षधरता स्पष्ट दिखती है, जो आम-आदमी के प्रति है, और इनका सौंदर्य श्रम का सौंदर्य है।
