जब उनके परिवारों में कोई पुरुष नहीं बचता रोटी के लिए याचना करती वे भूख से मर जाती हैं
आज सातवें दिन आप पढ़ेंगे ईरान डेनमार्क मूल की कवयित्री शीमा काल्बासी की युद्ध की विभीषिका, अफगानिस्तान पर हमले के बाद वहाँ की स्त्रियों तथा वहाँ की राजनैतिक सामाजिक स्थिति पर लिखी यह महत्वपूर्ण कविता
अफगानिस्तान की स्त्रियों के लिये
मैं टहल रही हूँ काबुल की गलियों में
रंगी हुई खिड़कियों के पीछे
टूटे हुए दिल और टूटी हुई स्त्रियाँ हैं
जब उनके परिवारों में कोई पुरुष नहीं बचता
रोटी के लिये याचना करतीं वे
भूख से मर जाती हैं
एक ज़माने की अध्यापिकायें ,चिकित्सिकायें और प्रोफेसर
आज बन चुकी चलते फिरते मकान भर
चन्द्रमा का स्वाद लिये बगैर
वे साथ लेकर चलती हैं अपने शरीर ,कफ़न सरीखे बुर्कों में
वे कतारों के पीछे धरे पत्थर हैं
उनकी आवाज़ों को उनके सूखे हुए मुंहों से बाहर आने की इज़ाज़त नहीं
तितलियों जैसे उड़ती हुई अफ़गान स्त्रियों के पास लेकिन कोई रंग नहीं
क्योंकि खून सनी सड़क के अलावा वे कुछ नहीं देखतीं
रंगी हुई अपनी खिड़कियों के पीछे से
वे नहीं सूंघ सकतीं बेकरी की डबलरोटी
क्योंकि उनके बेटों की उघड़ी हुई देहें सारी गन्धों को ढँक लेती हैं
और उनके कान कुछ नहीं सुनते
क्योंकि वे सिर्फ उनके भूखे पेट को सुनती हैं
गोलीबारी और आतंक की हर आवाज़ के साथ
अनसुनी कराहों और उनके रूदन के साथ ।
कड़वाहट के साथ चुप करा दी गई शांति एक उपाय है
अफ़गान स्त्री के जीवन के रक्तपात के लिये ,
बाहर न आती हुई भिंची हुई आवाज़ें टूटती जाती हैं
उनके जीवन के त्रासद अंत में ।
इसका अनुवाद किया है ‘कबाड़खाना ब्लॉग के श्री अशोक पाण्डेय ने और इसे मैने साभार ज्ञानरंजन जी की पत्रिका पहल के अंक 87 से लिया है
अब शीमा काल्बासी का परिचय भी जान लीजिये
शीमा चार भाषाओं में लिखती हैं। उनकी पहली कविता आठ वर्ष की उम्र में छपी थी । डेनिश स्कूल ऑफ नर्सिंग एण्ड रेडियोग्राफी से नर्सिंग का डिप्लोमा ले चुकी शीमा ने U N H C R और C R M के लिये दुभाषिये का काम किया है । साथ ही वे संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक पुनर्वास तथा आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों में शिरकत कर चुकी हैं और अनेक देशों में रह चुकी हैं
फिलहाल वे अपने पति और बच्चों के साथ अमेरिका में रहती हैं वीमेन इन वार उनकी रचनाओं का ताज़ा संग्रह है । प्रस्तुत है उनकी चर्चित कविता “ अफगानिस्तान की स्त्रियों के लिये “ से यह अंश । कल आपने दून्या मिख़ाइल की युद्ध पर एक कविता पढ़ी थी जिसका स्वर व्यंग्य का था , आज अफगानिस्तान पर अमेरिका के हमले के सन्दर्भ में शीमा की कविता पढ़िये जिसमें कहीं कोई राजनीतिक बयान नहीं है लेकिन स्त्री की स्थिति के बहाने सब कुछ कह दिया गया है ।
कविता :शीमा काल्बासी
अनुवाद : अशोक पाण्डेय
प्रस्तुति व संकलन : शरद कोकास