खचाखच भरी जेलें, सज़ा के साथ क़ैदी ‘नरक भी झेलें’

जेलों की खस्ता हालत में सुधार और क़ैदखानों को असल सुधार गृह बनाए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट बीते कुछ सालों में कई बार टिप्पणी कर चुका है.
फ़रवरी 2016 के अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में सुधार के लिए कई कमेटियां बनाने के लिए कहा था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बीते 35 सालों में सर्वोच्च अदालत के कई फ़ैसलों के बाद भी जेलों की हालत बेहतर नहीं हो रही है.
जेलों की ख़राब हालत का ज़िक्र अगर किया जाए तो संभवत: छत्तीसगढ़ का नाम सबसे पहले आएगा जहां की जेलों में क़ैदी ज़्यादा और जगह कम है.
छत्तीसगढ़ की दुर्ग जेल से हाल ही में बाहर आए नरसिंह कहते हैं, “किसी को धरती पर नरक के बारे में बताना हो तो उसे जेल भेज देना चाहिए.”
नरसिंह की मानें तो जेल में न तो खाने-पीने की व्यवस्था है और न ही शौच की. रात को पैर फैला कर सोना भी मुश्किल है. लोग शिफ्ट में नींद पूरी कर रहे हैं. शौच तक के लिए घंटों इंतज़ार करना पड़ता है. क्षमता से अधिक कैदियों की उपस्थिति ने जेल प्रबंधन के पूरे ढांचे को तहस-नहस कर दिया है.

सिर्फ़ दुर्ग जेल का हाल नहीं है बुरा
कारागार सांख्यिकी के हवाले से पखवाड़े भर पहले संसद में पेश एक रिपोर्ट की मानें तो देश के 36 में से 18 राज्यों की जेलों में क्षमता से अधिक क़ैदी हैं. महाराष्ट्र की जेलों में सौ क़ैदियों की क्षमता वाली जगह में 148 से अधिक क़ैदी रह रहे हैं तो मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा 144 के आसपास है.
लेकिन पूरे देश में सबसे भयावह आंकड़े छत्तीसगढ़ की जेलों के हैं जहां सौ कैदियों की क्षमता वाली जगह में 226 क़ैदी रह रहे हैं. महिला क़ैदियों के मामले में ये आंकड़ा बढ़कर 251 तक पहुंचता है.
कारागार सांख्यिकी के आंकड़े के अनुसार, राज्य की जेलों में कुल 5 हज़ार 883 लोगों को रखने की क्षमता है, लेकिन इन जेलों में 13 हज़ार 93 क़ैदी रह रहे हैं.
लेकिन राज्य के गृह और जेल मंत्री रामसेवक पैंकरा का कहना है कि अब छत्तीसगढ़ में हालात बदले हैं, जेलों की संख्या भी बढ़ी है और उनकी क्षमता भी. पैंकरा का दावा है कि ये आंकड़े पुराने हैं.
पैंकरा कहते हैं, “2003 में राज्य में 26 जेलें थीं, आज उनकी संख्या 33 है. पिछले साल भर में भी जेलों की व्यवस्था में लगातार सुधार हुआ है. हमारी कोशिश है कि 2018 में जेलों की क्षमता और बढ़े.”

क्या जेलों की क्षमता नहीं है बड़ा मुद्दा?
दक्षिण छत्तीसगढ़ की जेलों की स्थिति पर लंबा शोध करने वाली एडवोकेट शालिनी गेरा का मानना है, ”जेलों की क्षमता कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. जेलों की क्षमता राष्ट्रीय औसत के बरारबर ही है. खास कर जनसंख्या के लिहाज से बस्तर जैसे इलाकों में तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. इसके बाद भी क्षमता से अधिक बंदियों और क़ैदियों को लेकर यह सवाल उठता है कि क्या इन इलाकों में ज़्यादा गिरफ्तारियां हो रही हैं?”
शालिनी कहती हैं, “गिरफ्तारियां तो उतनी ही हो रही हैं जितनी राष्ट्रीय औसत है. मामला केवल इतना भर है कि हम लोगों को जेलों में लंबे समय तक रख रहे हैं.”
गिरफ्तारी और सज़ा का राष्ट्रीय औसत देखें तो औसतन एक आरोपी एक साल से भी कम समय जेलों में गुजारता है और उसके बाद या तो उसे ज़मानत मिल जाती है या फिर उसे रिहा कर दिया जाता है. लेकिन दक्षिण छत्तीसगढ़ के इलाकों में किसी आरोपी के जेल में रहने की अवधि चार गुना ज़्यादा है. एक बार जो जेल में आ गया, वह बाहर निकल नहीं पाता.
शालिनी गेरा का कहना है कि इन इलाकों में ज़्यादातर लोगों को माओवादी बता कर हत्या, हत्या की कोशिश, विस्फोट जैसे गंभीर अपराधों में गिरफ्तार किया जाता है, इसलिए इन्हें ज़मानत नहीं मिलती. दूसरा इनमें ग़रीबी और अशिक्षा इतनी अधिक है कि कई बार तो ये ज़मानत की कोशिश भी नहीं कर पाते.

‘जेलों में बंद 95.6 फ़ीसदी लोग निर्दोष’
शालिनी कहती हैं, “ऐसे गंभीर मामलों में बेशक ज़मानत नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन 2005 से 2013 तक के मामलों का हमने हमने अध्ययन किया और पाया कि इन जेलों में बंद 95.6 प्रतिशत लोग पूर्ण रूप से निर्दोष साबित हुए हैं और उन्हें ट्रायल के बाद बाइज्ज़त बरी किया गया.”
छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के अध्यक्ष डॉ. लाखन सिंह मानते हैं कि छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित इलाकों में नौजवानों को नक्सली बता कर जेलों में बंद किया जा रहा है, जो जेलों में क्षमता से अधिक लोगों की संख्या को बढ़ा रहा है.
लाखन सिंह कहते हैं, “सरकार यह मान कर चलती है कि दक्षिण बस्तर का हर आदिवासी नौजवान माओवादी है. यह उनकी रणनीति भी है. सरकार ने दक्षिण बस्तर के सैकड़ों गांवों में नौजवानों के नाम से स्थाई वारंट जारी कर रखा है. जब चाहे उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है और फिर कई-कई साल वे जेलों में नारकीय जीवन बिताते रहते हैं.”
लेकिन राज्य के जेल महानिदेशक गिरधारी नायक इस आरोप से सहमत नहीं हैं.
गिरधारी नायक कहते हैं, “छत्तीसगढ़ की जेलों में जो माओवादी हैं, वे जेल की कुल संख्या के केवल 6 प्रतिशत हैं. यह एक मिथक है कि सारी जेलों में नक्सली ठूस-ठूस कर भरे हुए हैं.”
कहा जाता है कि कई बार आंकड़ों के सहारे ही झूठ गढ़ा जाता है और सच भी. लेकिन गिरफ्तारियां, ट्रायल, ज़मानत, सज़ा और रिहाई के आंकड़ों से इतर एक सच तो ये है ही कि छत्तीसगढ़ की जेलों में हालात अच्छे नहीं हैं.
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