कविता छत्तीसगढ़ से ●१३
【अजय चन्द्रवंशी】
18 मार्च 1978 को जन्मे अजय चंद्रवंशी पेशे से सहायक विकास खंड शिक्षा अधिकारी हैं और कवर्धा छत्तीसगढ़ में रहते हैं । उनकी कविताएं कुछ महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में हमें पढ़ने को मिलती रही हैं । हाल के दिनों में उन्होंने बहुत सी किताबों पर छोटी-छोटी समीक्षाएं भी लिखी हैं । यहां हम उनकी कुछ छोटी छोटी कविताएँ ले रहे हैं । अजय की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कविता में चली आ रही परंपरागत भाषा-शिल्प की चिंता किए बिना वे अपनी बात बहुत साफगोई के साथ तार्किक ढंग से कह देना चाहते हैं । कई जगह उनकी कविताओं में एक द्वन्द प्रस्तुत होता है जिसके माध्यम से कविता में अर्थ ध्वनित होते हैं । शायद यही द्वंद ही अजय की कविताओं की मौलिक सुंदरता है जो आसानी से संप्रेषित भी होती है और अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप भी करती है । यद्यपि काव्यगत यात्रा में एक मुकम्मल यात्रा हेतु अभी उन्हें आगे प्रमाणित होना है, फिर भी इस यात्रा को जांचने परखने के लिए उन्हें पढ़ा जाना भी जरूरी है । इन कविताओं को पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें जरूर अवगत कराएं.
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निर्मोही
उसे नाम का
ज़रा भी मोह नही
वह तो सिर्फ बताता है
कितने लोगों ने
उसकी उपेक्षा की है.
आत्मज्ञान
दुनिया के तमाम सुख-सुविधाओं
को भोगते हुए
उसने जब इंद्रिय-संयम और जीवन की नश्वरता
पर बात की
ठीक उसी क्षण मुझे आत्मज्ञान हुआ !
जिंदगी आबाद रहेगी
जिंदगी आबाद है
फुटपाथ पर कपड़ा बेचते उस बुजुर्ग के चेहरे में
ग्यारह बजे तक भी काम न मिले उन मजदूरों की उम्मीदों में
माता-पिता के साथ साइकिल में बैठे उस बच्चे की मुस्कान में
स्कूल कैम्पस में बतियाते-खिलखिलाते इन लड़के-लड़कियों के चेहरों में
जिस्म झुलसाती इस दोपहरी में ठेला पेलते,पैदल चलते,
जद्दोजहद करते इन लोगों में
तुम फैलाओ नफरत, नफरत के सौदागरों
जिंदगी आबाद रहेगी, तुम्हारी जात, मज़हब को ठोकर मारती हुई !
जीत
वह हर बार जीतता है
फिर भी बेचैन रहता है
उसका अट्टहास
बदलता जाता है रुदन में
दरअसल वह जानता है
वह जीतता नही
कुछ लोग उससे हार जाते हैं
पायदाने
जब तक उसे लगता रहा
हम उसकी महत्वाकांक्षा की सीढ़ी के
एक पायदान हो सकते हैं
तब तक उसके लिए हम
ऊर्जा से भरे हुए थे
उसे हममें असीम संभावनाएं
दिखाई देती थीं
अब उसे लगने लगा है
हम उल्लेखनीय नही हैं
पता नही सायास है कि अनायास
अब वह कुछ दूर-दूर रहने लगा है हमसे
शायद उसे कभी समझ आये
हम जो भी थे
हम जो भी हैं
हम जो भी रहेंगे
किसी की महत्वाकांक्षा की सीढ़ी के पायदान
नही बनेंगे !
आह और वाह
तुम्हारे पीछे ये जो आह और वाह का हुजूम है
दरअसल ये केवल भावहीन चेहरे हैं
जिनके अपने व्यक्तित्व की कोई गरिमा नही
उनके शब्दों की भला क्या कीमत होगी
ये यंत्रवत सायास-अनायास निकलते शब्द अपनी सम्वेदना खो चुके हैं
तुम इनके लिए केवल ‘वस्तु’ हो
क्योकि तुम्हारा एक ‘मूल्य’ है
जो तुम्हारे ‘पद’, तुम्हारी ‘हैसियत’ के कारण है
जिस दिन तुम्हारा ‘मूल्य’ घट जाएगा
या तुमसे अधिक ‘मूल्यवान’ कोई ‘वस्तु’ आ जाएगी
उस दिन ये चेहरे और शब्द
कहीं और प्रतिस्थापित हो जाएंगे
उस दिन शायद तुम्हारा भ्रम कुछ दूर हो
जिसकी संभावना कम है !
मान्यता
हमे नहीं चाहिए तुम्हारी मान्यता
कि तुम्हारे चाहने न चाहने पर निर्भर नहीं है
हमारा ‘होना’
इतना ही होगा कि तुम्हारी सूची में न होंगे हम
ठोकर मारते हैं हम ऐसी सूची को
हमने किसी सूची के लिये ये राह नहीं चुनी है
कुछ भी नहीं है खोने के लिए हमारे पास
और यह विलाप नही घोषणा है हमारी
ऐसा नहीं कि हम नहीं चाहते स्वीकृति
हम भी चाहते हैं प्रेम, आशीर्वाद
मगर हम वे नही हैं जो तुम्हारी खुशामद करें
तुम्हारे करीब आते रहें तो यह नहीं कि तुम्हारे अनुयायी हैं
हम करते हैं सम्मान जिसमें जो सार्थक है
मगर हमें नही आता साधना संबंधों के गणित
हम नहीं लगाते भविष्य की सम्भावनाओं के हिसाब
कि हमसे नहीं हो पाता व्यक्ति की ‘हैसियत’ के हिसाब से व्यवहार
और हम ऐसा चाहते भी नहीं
हमे नहीं चाहिए ऐसी ‘मान्यता’ जो ज़मीर बेचकर मिलती है !
डर
जैसे-जैसे बढ़ता गया
उसका डर
वैसे -वैसे तेज होती गई उसकी आवाज़
सुनते रहे हैं भयभीत आदमी
सहमता है, चुप हो जाता है
मगर अजीब समय है
जो जितना ज्यादा डरता है
उतना ही ज्यादा चिल्लाता है
निष्पक्ष
वह कहता है
वह हमेशा पक्ष लेता है सत्य का
और सबके ‘सत्य’ अलग-अलग होते हैं
जिस कोण से देखो वैसा
दरअसल बात यह है कि
वह कह नही पाता
“मैं तुमसे नफरत करता हूँ”
कितनी छोटी सी बात के लिए
हम झगड़ते हैं
मसलन नल में पानी के लिए
कर लेते हैं याद
एक दूसरे के पुरखों को
करते हैं बखान एक दूसरे के ‘गुणों’ का
समझ नहीं पाते
नल में नहीं आएगा ज्यादा पानी
हमारे झगड़ने से
न ही कोई पीछे हटेगा अगले दिन
जबकि हम जानते हैं
हमे जीना और मरना है साथ इसी नल के
तो क्यूँ न रखें थोड़ा धीरज
सह लें थोड़ी तकलीफ
एक दूसरे के लिए !

(छत्तीसगढ़ लिटरेरी फोरम से साभार)