19.02.2019
प्राचीन काल से भारत मे विदेशी यात्री आते रहे हैं. कुछ आक्रमणकारियों के साथ, कुछ व्यापारियों के साथ,तो कुछ धार्मिक-तात्विक ज्ञान की खोज में आते रहें.आये-गए तो कितने ही होंगे मगर सभी ने यात्रा विवरण दर्ज नही की.बहुतों ने दर्ज भी की होगी मगर समय-प्रवाह में वे काल-कलवित हो गयें हैं. मगर सौभाग्य से कुछ यात्रियों के यात्रा विवरण सुरक्षित रह गए हैं, जिससे उस दौर के इतिहास को जानने में मदद मिलती है. इनमे मेगस्थनीज, फाह्यान, व्हेनसांग,अल-बिरुनी, इब्नबतूता, बर्नियर प्रमुख हैं.
इब्नबतूता मोरक्को का निवासी था, अपने धार्मिक-वृत्तिवश 22 वर्ष की अवस्था मे ही(1325 ई.) मक्का आदि सुदूर पवित्र स्थानों की यात्रा के लिए निकल पड़ा.शुरू में उसका विचार केवल हज करने का ही था, मगर बाद में कुछ धर्म गुरुओं से मिलने के बाद उसके मन मे ‘संसार’ भ्रमण की इच्छा जागृत हो गई.मक्का से भारत के लिए स्थल मार्ग से मक्का, कस्तूनतुनियाँ, कास्पियन समुद्र, मध्य एशिया, खुरासान, हिंदुकुश, हिरात, काबुल, कुर्रम घाटी होकर 734 हि. (1333ई.) में सिंधुनद के किनारे भारत की सीमा पर पहुंचा.
उस समय दिल्ली में तुगलक वंश के मोहम्मद बिन तुगलक (1325-1351ई.) का शासन था.उस समय दरबार मे विदेशियों का काफी सम्मान होता था और उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त भी किया जाता था.बतूता को भी सम्राट ने दिल्ली के ‘काजी’ का महत्वपूर्ण पद दिया.इस पद पर रहते हुए बतूता ने राजदरबार और सम्राट के रहन-सहन,राजकीय कार्य-प्रणाली, षड्यंत्र, सैन्य-अभियान, सूचना-तंत्र, दंड-विधान को करीब से देखा.अफवाहों, षड्यंत्रों से बनते-बिगड़ते सम्बन्ध से बतूता भी अछूते नही थे, वह सम्राट के प्रिय थे मगर ऐसा भी समय आया जब उन्हें सम्राट में कोपभाजन का शिकार होना पड़ा.मगर शीघ्र ही स्थिति उनके अनुकूल हो गई और सम्राट ने उन्हें अपना राजदूत बना अमूल्य रत्नादि देकर दलबल सहित चीन सम्राट की सेवा में भेजा. बतूता 743 (1342ई.) हिजरी को चीन के लिए प्रस्थान किया.अलीगढ़, कन्नौज, चंदेरी, दौलताबाद, खम्बात होते हुए वह कालीकट पहुँचा. वह से आगे बढ़ने और लुटेरों द्वारा समस्त संसाधन लूट लिए जाने और राजसेवकों के नष्ट हो जाने के कारण सम्राट के कोपभाजन की आशंका से बतूता ने दिल्ली लौटने का विचार त्याग दिया.वहां से इधर-उधर भटकते , कई देशों की यात्रा करते 750 हि. को वह अपने देश मोरक्को वापस पहुंच गया.इस तरह वह 25 वर्ष देश से बाहर रहा, जिसका अधिकांश समय यात्रा में ही व्यतीत हुआ.श्री यूल के अनुसार उसने लगभग 75000 मील की यात्रा की.यातायात के आधुनिक साधनों के अभाव में इतनी लंबी यात्रा आश्चर्य जनक है. आश्चर्यजनक यह भी है कि उसने अपना विवरण यात्रा के पश्चात स्मृति के आधार पर लिखा है.इतने लोगों, स्थानों ,घटनाओं को बहुत कम त्रुटि के साथ दर्ज करना विस्मय पैदा करता है.
बहुत सम्भव है वह यात्रा के दौरान उसे किसी ढंग से दर्ज करता रहा हो(जिसका खुद उसने कहीं उल्लेख नही किया है),लेकिन उसके कहे अनुसार लुटेरों द्वारा उसका सर्वस्व लूट लिया गया था.बहरहाल यह माना जाता है कि उसने स्मृति के सहारे ही अपना विवरण लिखा है.
बतूता के इस यात्रा विवरण से मुख्यतः तत्कालीन राजकीय जीवन की झांकी मिलती है, मगर ‘सामान्य’ जनजीवन के झलक भी जगह-जगह मिल जाते हैं. चूंकि शासक वर्ग इस्लाम का अनुयायी था और बतूता ख़ुद भी, इसलिए इसमें मुख्यतः इस्लाम से सम्बंधित रीति-रिवाजों और कर्मकांडो का चित्रण है.इसमे बतूता के धार्मिक ‘पूर्वाग्रह’ भी स्पष्ट दिखते हैं, जहां वह ‘हिन्दुओ’ को अधिकतर ‘लुटेरा’ और ‘डाकू’ के रूप में चित्रित करता है. निश्चित रूप से मध्यकालीन सामंती वैचारिक सीमा में बतूता से अधिक उम्मीद की भी नही जा सकती.वैसे भी जिस प्रकार से राजदरबारों में षड्यंत्र और सत्ता के लिए हत्याएं होती थी, सामन्तो में आपसी झगड़े होते थें वहां ‘धर्म’ गौण हो जाता था.
बतूता के इस विवरण का ऐतिहासिक महत्व है.इतिहासकारो को इतिहास के कई गुत्थियों को सुलझाने में इससे मदद मिली है. श्री मदनगोपाल के अनुसार ” सम्राट(मोहम्मद बिन तुगलक) तथा उसके शासन के संबंध में फैले हुए ‘चीन की चढ़ाई’ आदि वर्तमानकालीन भ्रमों को दूर करने के अतिरिक्त बतूता ने तत्कालीन भारतीय इतिहास के कुछ अन्य बातों पर भी प्रकाश डाला है; कुतुबुद्दीन ऐबक की दिल्ली विजय तिथि, बंगाल के मुसलमान गवर्नरों का शासनकाल, तुगलक वंश का तुर्क जातीय होना, कोरोमंडल तट के मुस्लिम शासकों का वृत और तत्कालीन भारतीय मुद्रा आदि विषयों की जानकारी के संबंध में इस विवरण से यथेष्ट सहायता मिलीं है”.
. विवरण में स्त्रियों का जितना चित्रण मिलता है, उसमे उनकी ‘बेबसी’ ही झलकती है.युद्ध मे पराजित राजाओं में स्त्रियों जो बहुधा हिन्दू ही अधिक हैं;
दरबारों में नचवाई जाती थी, तत्पश्चात सम्राट उन्हें युवराजों, अमीरों को बांट देता था.जब राज घरानों का यह हाल था तो सामान्य घर के स्त्रियों की कल्पना की जा सकती है.उन्हें दासियों के रूप में खरीदा बेचा जाता था, कोई ‘अच्छी’ लगे तो उससे शादी कर ली जाती थी.पुरुषों को भी दास के रूप में खरीदा-बेचा जाता था.उनसे कुली,मजदूरी, समान ढोने का काम लिया जाता था. कई जगह किराए पर भी मजदूर प्राप्त करने का उदाहरण आता है, इससे पगार देकर मजदूरी कराने की पुष्टि होती है, जो व्यापारिक पूंजीवाद का लक्षण है.अब तक मुद्रा का चलन व्यापक हो गया था, विदेशों से व्यापार होता था, इससे मध्यकालीन समाज के ‘गतिशीलता’ का पता चलता है.
बतूता ने आँखो-देखी ‘सती-वृतांत’ का जो चित्रण किया है, वह मार्मिक है.मध्यकालीन सामंती मूल्यों की यह विडंबना थी कि एक स्त्री को अपना जीवन समाप्त करना पड़ता था.बतूता लिखता है यह अनिवार्य नही था मगर यह ‘मूल्य’ बन गया था, और इसे ‘वंश प्रतिष्ठा’ गिना जाता था.मगर इसके अलावा अन्य कारण भी थे जिस तरफ बतूता का ध्यान जाना सम्भव नही था. जहां युद्ध के बाद पराजित खेमे के स्त्रियों को समान की तरह खरीदा-बेचा जाता था, उन्हें कदम-कदम पर अपमानित किया जाता था;वहां ऐसी ‘प्रथा’ को पनपने में अवश्य बढ़ावा मिलता है.