Monday , 04 दिसम्बर 2017
तामेश्वर सिन्हा (बस्तर प्रहरी साभार )
बस्तर। आदिवासी लोग अपने समुदाय के आधार जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए आज भी संवैधानिक लड़ाई के ही पक्ष में है। और वो संविधान में दिए गए सारे अधिकारों के तहत अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन मौजूदा सरकार आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का हनन खाकी के दमन से करने में लगी हुई है। ऐसा ही छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में एक गांव बुरुंगपाल है। बुरुंगपाल जगदलपुर जिला मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर दूर तोकापाल ब्लॉक के अंतर्गत आता है बस्तर वैसे तो चरमपंथी वाम गतिविधियों के लिए जाना जाता है, लेकिन यहां के आदिवासी शुरुआती दौर से ही संवैधानिक लड़ाई के पक्ष में रहे हैं। अपने पुरखों की नार बुमकाल परंपरा को ही वर्तमान ग्रामसभा की जननी मानते हैं इसलिए कोयतुर लोकतंत्र के जनक हैं।
बुरुंगपाल के आदिवासी ग्रामीण अपनी जमीन बचाने संविधान में दिए अधिकारों के तहत लड़ाई जारी रखे हुए है, यह लड़ाई 1992 से चली आ रही है जब बुरुंगपाल में मुकुंद आयरन और एसएम डायकेम के स्टील प्लांट का भूमिपूजन और शिलान्यास किया गया था। मालूम हो कि प्लांट के विरोध में आदिवासी लामबंद हो गए थे आंदोलन की अगुवाई यहां कलेक्टर रह चुके समाजशास्त्री डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने की थी। बस्तर से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तक पद यात्रा और जगह-जगह इसका विरोध किया गया था। ग्रामीणों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागृत कर एकजुटता का काम स्व. ब्रम्हदेव शर्मा ने किया था। ड़ॉ शर्मा पेसा कानून के ड्रॉफ्ट कमेटी के सदस्य थे। आप को बता दें कि बुरुंगपाल में ही रह कर डॉ शर्मा ने पेसा कानून का ड्राफ्ट तैयार किया था इसके बाद 73 वें संविधान संशोधन विधेयक में इसे पारित किया गया था। स्टील प्लांट आने को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में एक याचिका भी लगाई गई थी। जिसका फैसला चार साल बाद ग्रामीणों के पक्ष में आया था, जिसे आज भी ग्रामीण विजय उत्सव के रूप में मनाते हैं।
लेकिन ग्रामीणों की यह खुशी ज्यादा दिन की नहीं रही। फिर प्लांट के काले बादल उन पर मंडराने लगे, जमीन छीने जाने का डर फिर उन्हें सताने लगा। 2013-14 में फिर ग्रामीणों को पता चला कि स्टील प्लांट उनके गांव लगने वाला है । और आखिरकार 9 मई 2015 को दक्षिण बस्तर की एक सभा मे पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में बुरुंगपाल गांव में अल्ट्रा मेगा स्टील प्लांट स्थापित करने के लिए एनएमडीसी अथवा सेल के साथ एमओयू साइन किया गया। ग्रामीणों को अखबार के माध्यम से पता चला कि उनके गांव में स्टील प्लांट लगने को लेकर एमओयू साइन हो गया है। एमओयू सिग्नेचर के 24 घंटे के भीतर ही ग्रामीण सरकार के खिलाफ लामबंद हो गए, अर्थात सर्वोच्च संवैधानिक बल प्राप्त पारंपरिक ग्राम सभा ने आदेश पारित कर दिया क्योंकि पारंपरिक ग्रामसभा को अनुसूचित क्षेत्रों में विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका के बल अनुछेद 13(3) क, 244(1), पांचवीं अनुसूची के पैरा 2 व 5 तथा भारत सरकार अधिनियम 1935 के अनुच्छेद 91, 92 से प्राप्त है। अनुसूचित क्षेत्रों की परंपरागत ग्राम सभाओं के आदेश और निर्णय प्रस्तावों को वहां का प्रशासन व मीडिया विरोध बता देता है जबकि वह विरोध नहीं बल्कि जनादेश होता है। इस बात को माननीय उच्चतम न्यायालय ने समता का फैसला 1997 में साफ कही है कि अनुसूचित क्षेत्रों में केंद्र व राज्य सरकार या गैर आदिवासी की एक इंच जमीन नहीं है।
इसलिए इन क्षेत्रों में लोकसभा ना विधानसभा सबसे ऊंची पारंपरिक ग्रामसभा (वेदांता का फ़ैसला 2013) से ज्यादा क्लियर होता है। इसलिए इन क्षेत्रों में कोई भी जमीन अधिग्रहण निर्माण परियोजना नई योजना लागू करने से पहले पारंपरिक ग्राम सभा की अनुमति आदेश अनिवार्य होती है परंतु जिला प्रशासन संविधान के विरुद्ध इन क्षेत्रों में जनादेश के आदेश को हमेशा कुचलने के तमाम उदाहरण पेश करते रहे हैं जो कि इन क्षेत्रों के विकास नहीं होने तथा अशांति की मुख्य वजह है। ग्रामीणों का आरोप था कि स्टील प्लांट आने से उनकी जमीनों का असंवैधानिक अधिग्रहण किया जाएगा। बुरुंगपाल के आलवा डिलमिली, मावलीभाठा के साथ-साथ 14 गांव के ग्रामीणों ने स्टील प्लांट नहीं लगाने का संवैधानिक आदेश देने लगे हैं।
जानकारी के अनुसार ग्रामीणों ने सरकार पर आरोप लगाया कि पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र में ग्राम सभा की सहमति/आदेश के बिना किसी भी प्रकार का प्लांट, खनन निर्माण लगने नहीं देंगे, ग्रामीणों ने ग्राम सभा कर स्टील प्लांट नहीं लगाने का विश्वास प्रस्ताव पारित कर प्रशासन को अगवत कराया। गांव के जनपद सदस्य रुखमणी कर्मा कहती हैं कि प्रशासन ने उनके विरोध को विकास कार्यों में बाधा पहुंचाना बताया था। जबकि यह संवैधानिक आदेश है प्रशासन के अनुसार स्टील प्लांट लगने से गांव में विकास की बात कही गई थी।
हाल ही में ग्रामीणों के विरोध को देखते हुए डिलमिली गांव में थाना खोला जा रहा है जिसका विरोध ग्रामीण कर रहे हैं, डिलमिली के सरपंच आयतू मंडावी कहते हैं कि कोडेनार में पहले से थाना स्थित है फिर 3 किमी की दूरी पर डिलमिली में थाना खोला जा रहा है। यह एक षड्यन्त्र के तहत काम हो रहा है पहले थाना खोलेंगे फिर स्टील प्लांट के जमीन अधिग्रहण के लिए ग्रामीणों को जुल्म कर मजबूर करेंगे, डिलमिली के सरपंच ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से मीडिया को बताया कि थाने खोलने का संवैधानिक आदेश कर रहे ग्रामीणों को नक्सलियों की संज्ञा दी जा रही है। ग्रामीणों को पुलिस द्वारा धमकाया जाता है। आयतू कहते हैं डिलमिली, बुरुंगपाल, मावलीभाठा में किसी भी प्रकार की नक्सली गतिविधि नहीं होती है, वो आगे कहते हैं कि बस्तर में भारतीय संविधान की धारा 244(1) 5 वीं अनुसूची लागू है। कानून कहता है कि स्थानीय जनसमुदाय के बगैर सहमति या ग्राम सभा किए बिना किसी भी प्रकार का निर्माण करना, जमीन अधिग्रहण करना संविधान का उल्लंघन है, वहीं पुलिस प्रशासन का कहना है कि आस-पास नक्सली गतिविधियों के चलते डिलमिली में थाना खोलने का निर्णय लिया गया है।
आपको बता दें कि पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र से तात्पर्य संविधान की पांचवीं अनुसूची में निहित जनजाति क्षेत्रों में जनजातियों का प्रशासन और नियंत्रण उन्नति व कल्याण का अधिकार जनजातीय समुदाय को है। जबकि राज्य सरकार व जिला प्रशासन सामान्य क्षेत्र के संविधान ( अनुछेद245) को थोपती है। जनजातीय क्षेत्रों में ग्राम सभा का निर्णय ही सर्वमान्य होता है। भारत में 10 राज्य पांचवीं अनुसूची में आते हैं। जहां जनजाति का प्रशासन और नियंत्रण होता है।
बस्तर अनुसूचित जनजातीय क्षेत्र है जहा संविधान में निहित पांचवीं अनुसूची लागू है जो कि भारत सरकार अधिनियम 1935 की अनुच्छेद 91,92 के मूल आधार पर बनी है। उस वक्त प्लांट के विरोध में आदिवासी लामबंद हुए थे। आंदोलन की अगुवाई यहां कलेक्टर रह चुके और पेसा कानून के इंजीनियर डॉ. बी.डी.शर्मा ने बुरुंगपाल में ही रह कर आन्दोलन की रूपरेखा तय की थी, यही नहीं उन्होंने पेसा कानून का ड्राफ्ट भी यहीं रह कर तैयार किया था।
पेसा कानून लाने का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में अलगाव की भावना को कम करना और सार्वजनिक संसधानों पर बेहतर नियंत्रण तथा प्रत्यक्ष सहभागिता तय करना था। जिसकी जमीन उसका खनिज इसका मूल उद्देश्य था इनका नारा था मावा नाटे,मावा राज। आदिवासियों की लम्बी लड़ाई के बाद 73 वें संविधान संशोधन में पेसा कानून को सम्मिलित किया गया।
संविधान का गुड़ी (मन्दिर) है गाँव में…
2 हजार की आबादी वाले गांव की खास बात यह है कि यह देश में अकेला गांव है, जहां भारत के संविधान का (मंदिर) गुड़ी है, यह कोई भव्य (मंदिर) गुड़ी नही बल्कि आधारशिला पर संविधान में निहित जनजातीय क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची के प्रावधान और अधिकार लिखा हुआ है। 6 अक्टूबर 1992 को जब इस गुड़ी की आधारशिला रखी गयी थी तब से ग्रामीण इसे ही गुड़ी समझते हैं और इसकी पूजा (सेवा) करते हैं।
अब देश के कई अनुसूचित क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के संवैधानिक प्रावधान लिखित पथरगड़ी लग रहे हैं। करीब 25 साल पहले आदिवासियों ने स्टील प्लांट के खिलाफ एक आंदोलन किया था। इसके बाद यह (मंदिर) गुड़ी स्थापित हुआ। एसएम डायकेम के स्टील प्लांट के जमीन अधिग्रहण को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में याचिका लगाईं गई थी, याचिका का फैसला ग्रामीणों के पक्ष में आया था, जिस दिन फैसला हाईकोर्ट में आया उसी दिन को ग्रामीण विजय उत्सव के रूप में यहाँ एकजुट होकर मनाते हैं। आज भी ग्रामीण विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा (बस्तर राज के पेनों की महाजतरा) के मावली परघाव के दो दिन पूर्व बुरुंगपाल पंचायत के आसपास के 50 गांव के आदिवासी अनुसूचित जाति ओबीसी समुदाय इकट्ठा होकर संविधान में आदिवासीयों व पांचवीं अनुसूची के प्रावधान अधिकार शक्तियों का वाचन , चर्चा परिचर्चा एवं वर्तमान में एक्सक्लुडेड एरिया के संविधान प्रावधान की संवैधानिक सभा पारम्परिक ग्रामसभा की प्रस्ताव निर्णय को लेकर ग्राम प्रमुख अवगत कराते हैं यह 25सालों से लगातार चलते आ रहा है।
आदिवासी समुदाय संवैधानिक लड़ाई के पक्ष में-
आदिवासी समुदाय आज भी संवैधानिक लड़ाई के पक्ष में है, संविधान में दिए सारे आधिकारों के तहत अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं, बुरूंगपाल सरपंच तथा तत्कालीन संघर्ष समिति (1992)के सदस्य एवं पेशा कानून के ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य सोमारू कर्मा ने उस दौरान पेसा कानून के इंजीनियर डॉक्टर बीडी शर्मा के योगदान को बताते हैं कि यदि शर्मा जी का सकारात्मक सहयोग नहीं मिलता तो आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की लड़ाई कमजोर हो जाती क्योंकि “पेशा अधिनियम ” आदिवासियों की ग्राम गणराज्य की लड़ाई “मावा नाटे मावा राज” के दहाड़ से बना है। इस सच्चाई को बहुत कम ही लोग जानते हैं कि पेशा कानून बुरूंगपाल में लिखा गया। प्रधानमंत्री की मौजूदगी में स्टील प्लांट लगाने को लेकर हुए एमओयू हस्ताक्षर की भी हम संवैधानिक लड़ाई लड़ेंगे।
आप को बता दें कि एक्सक्लुडेड एरिया एक्ट जिसे इंडिया गवर्नमेंट एक्ट 1935 के कंडिका 91 व 92 में अंग्रेजों ने स्थान दिया था वहां से लिया गया है। आगे के संविधान में इन्हीं एक्सक्लुडेड इलाकों को अनुसूची पांच व अनुच्छेद 244 (1) में स्थान दिया गया। एक्सक्लुडेड एरिया आदिवासियों के स्वशासन के लिये है जिसे सरकार ने ग्रामसभा का नाम दिया है। आदिवासी समुदाय में हजारों वर्षों से ग्रामसभा के द्वारा कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका का कार्य नार बुमकाल के द्वारा संचालित होते आ रही है। जिसे आज ग्रामसभा कहते हैं। आदिवासियों में किसी भी सामूहिक कार्य के लिए समुदाय की सहमति अनिवार्य होती है यही गणतंत्र की मूल भावना भी है।
विदित हो कि एक्सक्लुडेड क्षेत्रों के संवैधानिक प्रावधानों का उल्लघंन किया जा रहा है जो लोकतंत्र की हत्या है। इसका सबसे ज्यादा उल्लंघन सरकारी अधिकारियों के द्वारा किया जा रहा है जिसके कारण आदिवासी समुदाय में घोर आक्रोश दिखाई दे रहा है। जबकि सरकार को लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना चाहिए। सरकार अनुच्छेद 13(3)क, 19(5,6),25, 244(1), 275, 330,332,340,342 की मूल भावना से परे कार्य कर रही है। सरकार को चाहिए कि जनता के लिए स्थापित प्रावधानों का पूर्ण पालन करे।
एक्सक्लुडेड क्षेत्र में संविधान के उल्लंघन के कारण ही युद्ध जैसे हालात बन गए हैं। अनुसूचित क्षेत्र के प्रावधानों को पूर्ण रूप से लागू करने से 6 माह में हालात सामान्य हो जाएगा। अनुसूचित क्षेत्र में नगर निकाय असंवैधानिक है शासन प्रशासन अनुच्छेद 243ZC का उल्लंघन कर रहा है।
एक्सक्लुडेड क्षेत्र में नगर निकाय असंवैधानिक है वर्तमान सत्तासीन सरकार इसको बढ़ावा दे रही है जो सीधा-सीधा आदिवासियों के अधिकारों व संविधान को कमजोर करने की साजिश है। पेशा कानून के अनुसार किसी भी ग्राम पंचायत में सरपंच, पंच व सचिव सर्वोच्च नहीं हैं पारम्परिक ग्रामसभा बड़ी होती है। सरपंच व सचिव पंच एक सरकारी एजेंट होते हैं पूरा अधिकार पारम्परिक ग्रामसभा के पास होता है। ग्रामसभा के निर्णय सर्वमान्य व सर्वोच्च हैं लेकिन इसके उलट व्यवस्था जिला प्रशासन द्वारा सरपंच व पंच को सर्वोच्च बता दिखाकर ग्रामसभा के प्रस्ताव निर्णय को अमान्य किया जा रहा है जो कि संविधान के विपरीत है।
सरपंच एक मात्र जनता के प्रतिनिधि हैं लेकिन यहां तो सरपंच तानाशाही व्यवस्था को लेकर पनप रहे हैं क्योंकि जिला प्रशासन उन्हें गलत दिशा दे रहा है । इसी कारण भूमि अधिग्रहण, योजनाओं के निर्माण में फर्जी ग्रामसभाओं के द्वारा या बन्दूक की नोंक पर प्रस्ताव बनाया जा रहा है। जिससे जनता का विश्वास लोकतंत्र से डिगने लगा है जो कार्य गांव की जनता ने अस्वीकार कर दिया उसे कैसे थोप दिया जाता है यह बहुत ही गम्भीर संकट है ।
नगरनार स्टील प्लांट, बैलाडीला आयरन ओर प्रोजेक्ट इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह हत्या सरकार के नुमाइंदे जो कि भारत सरकार के सेवार्थ हैं संविधान के प्रावधान का पूरा पालन करने का प्रण लेकर आते हैं लेकिन वे ही जनता के लोकतांत्रिक अधिकार की हत्या कर रहे हैं। लोकतंत्र की हत्या से भविष्य में एक्सक्लुडेड क्षेत्रों में खतरनाक हालात निर्मित हो सकते हैं। एक्सक्लुडेड क्षेत्र मतलब नॉन ज्यूडिशियल क्षेत्र राज्य सरकार राज्यपाल को अंधेरे में रख कर ज्यूडिशियल सिस्टम को कैसे थोप रही हैं? नॉन ज्यूडिशियल क्षेत्रों में नॉन ज्यूडिशियल प्रसाशनिक व्यवस्था की व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम 1935 व भारत का संविधान अधिनियम 1950 में भी निहित है।
http://www.janchowk.com/statewise/sonbhadra-mirzapur-adivashi-scst-electioncommission/1577