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अम्बेडकर और गांधी की संवैधानिक पारस्परिकता : कनक तिवारी

14.04.2018

गांधी और अम्बेडकर का संवाद समीकरण आजादी के पहले के भारत का महत्वपूर्ण परिच्छेद है। गांधी में विशाल उदारता भी थी। बौद्धिक मतभेदों के रहते भी अम्बेडकर को गांधी ने देश हित में कारगर भूमिका सौंपी। गांधी का अहंकार सुरक्षित रह सकता था लेकिन देश को अपनी बुनियाद पर खड़ा होने में आजादी के बाद कई अज्ञात खतरों से खेलना पड़ता। यह गांधी थे जिनके आग्रह पर अंबेडकर को संविधान सभा में सम्मानजनक ढंग से शामिल किया गया। संविधान सभा में गांधी की मदद से जीतकर पहुंचे थे। संविधान सभा की एक एक उपपत्ति पर अंबेडकर के जवाब साफगोई, बौद्धिक सचेष्ठता और भविष्यमूलक भाषा में लिखे गए वह नए भारत के इतिहास का कालजयी दस्तावेज है। अंबेडकर मुख्यतः दिमाग थे और दलितों के लिए दिल भी। वे भावनाओं को तर्क की जुबान में परोसने के भारतीय संविधान सभा के सबसे प्रखर प्रवक्ता थे। वह उदार नेताओं का दौर था। इतिहास ने सिद्ध किया गांधी का फैसला देश और भविष्य की भलाई का था। अम्बेडकर नहीं होते तो करीब दो वर्षों की उनकी प्रतिभा के बिना आईन की आयतों के चेहरे के कंटूर इस तरह स्थिर नहीं किये जा सकते थे।

 

अम्बेडकर ने सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में मूल अधिकारों की उपसमिति के सुझावों और सिफारिशों पर रचनात्मक मानव अधिकारों की मुहर लगाई। जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद, के.एम. मुंशी, हरिविष्णु कामथ वगैरह बहुत से प्रवक्ता रहे हैं जिनके तर्कजाल को अम्बेडकर बुनियादी सांचे में ढालने की महारत रखते थे। डाॅ. अम्बेडकर यदि संविधान सभा में नहीं होते तो संविधान को वैज्ञानिक, आधुनिक, पश्चिम-परिचित और भविष्यमूलक भाषा में विधायन करने में बहुत कठिनाइयां होतीं। तल्ख चिंतक अंबेडकर के विचार दर्शन में करुणा की कविता के अलावा धारदार तर्क भी हैं। उनमें विवादग्रस्तता, विचारशीलता और विपक्षियों पर प्रहार करने की अप्रतिम क्षमता साफ साफ है। संविधान सभा का करीब आधा कार्यकाल खत्म होने के बाद अंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान सभा में बौद्धिक आलोक छितरा गए। उनके संवैधानिक बौद्धिक अवदान पर दुराग्रह अथवा वीरपूजा की भावना के साथ परस्पर विपरीत आलोचना ग्रंथ मिलते हैं। सच्चे अंबेडकर की तलाश वस्तुनिष्ठ बुद्धिजीवियों को करनी होगी।

 

अम्बेडकर गांधी की सियासी दृष्टि से संविधान निर्माण के कायल तो क्या विरोधी रहे। सविनय अवज्ञा, धरना, सिविल नाफरमानी, असहयोग, जन आंदोलन और हड़ताल जैसे निष्क्रिय प्रतिरोध के गांधी हथियारों का अपनी कानूनी निष्ठा के कारण विरोध किया। उनकी संवेदना लेकिन एक मुद्दे पर चूक गई। उन्होंने कहा किसी को सरकार से शिकायत हो तो सीधे उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में दस्तक दे सकता है। सड़क आंदोलन की क्या जरूरत है। इंग्लैंड के परिवेश में ऐसा होता रहता है। उस छोटे गोरे देश के मुकाबले भारत जैसे बड़े गरीब, बहुल जनसंख्या वाले महादेश में औसत हिन्दुस्तानी के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाना आसमान के तारे तोड़ने जैसा सिद्ध होता है। खस्ताहाली को भी लूटने वाले वकीलों की फीस, जजों की कमी, नासमझी, चरित्रहीनता और ढिलाई तथा मुकदमों की मर्दुमशुमारी से परेशान पूरी व्यवस्था के रहते अम्बेडकर के आश्वासन के बाद जनता का भरोसा बुरी तरह कुचल दिया गया है।

 

अम्बेडकर और गांधी एक दूसरे के प्रबल विरोधी लेकिन परिपूरक हैं। दलितों के अलग निर्वाचन क्षेत्र को लेकर गांधी और अंबेडकर में समझ विकसित नहीं होती तो आजादी मुल्तवी हो सकती थी। सवर्ण होकर भी गांधी के मन में दलितों के लिए अंबेडकर की तरह पीड़ा थी। अंबेडकर इस तरह की सहानुभूति के कायल नहीं थे। वे दलितों को योग्य बनाकर बराबरी के हक के पक्ष में थे। उनमें व्यग्रता थी। गांधी में धीरज था। गांधी ईसाइयत के आध्यात्मिक मूल्यों से परहेज नहीं करते थे। अंबेडकर यूरोप की बौद्धिक प्रतिभा के पक्षधर और आयातक थे। अंबेडकर में तल्खी थी लेकिन अंदर कहीं करुणा का सैलाब था। गांधी पूरी तौर पर करुणामय थे। गांधी का अतिआदर्शवाद धीरे धीरे धीमा होकर अव्यावहारिक बनाया जा रहा है। गांधी और अंबेडकर दोनों की दुर्गति है। दोनों के शिष्य या तो अंधश्रद्धा के कायल हैं अथवा उनकी उपेक्षा करते हैं। अंबेडकर वोट बैंक की राजनीति के चलते अपने सियासी जुमलों के करण हर पार्टी के लिए मुफीद हैं। लेकिन अमल में लाने से गले की हड्डी बनते दिखाई देते हैं।

 

अम्बेडकर के नेतृत्व में कई सदस्य धर्म को राज्य से अलग रखे जाने के पक्षधर थे। इनमें वैज्ञानिक के.टी. शाह तो यह खुल्लमखुल्ला लिखे जाने के पक्ष में थे कि राज्य का किसी भी धर्म, सम्प्रदाय अथवा विश्वास की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं होगा। उनका कहना था कि यदि भारत को एक असाम्प्रदायिक राज्य बनाना है तो न केवल सभी धार्मिक क्रियाकलापों को विनियमित बल्कि उनकी मनाही कर देना ही उचित होगा। धर्म और राज्य के अलगाव को लेकर संविधान की घोषणाओं में पारदर्शिता और स्पष्टता की पैरवी उन्होंने की थी। कई दलित विचारक वगैरह अंबेडकर के यश को यदि प्रोपेगेन्डा की भाषा में व्याख्यायित करते हैं। वइ इस अशेष बौद्धिक का अवमूल्यन है। संविधान सभा में अंबेडकर का यश उपलों की दीवार नहीं रहा है जिसे धक्के से गिरा दिया जाए। अंबेडकर ने अंतिम भाषण में कटाक्ष भी किया था कि उनसे जैसा बना, वैसा संविधान वे वक्त की दहलीज़ पर रख रहे हैं। संसद की आगामी पीढ़ियां इसे किस तरह चलाएंगी-यह उन पर ही निर्भर है। अंबेडकर के भाषणों में इस बात के इशारे हैं कि हमें बहुत सी बातों का ठोस बयान और फैसला करना होगा। क्योंकि उनके अनुसार वे नहीं जानते थे कि भविष्य की पीढ़ियां इस तरह के मामलों में कैसा रुख अपनाएंगी। बौद्धिकों और परवर्ती पीढ़ियों पर किए गए अम्बेडकर के कटाक्ष एक राजनीतिक स्पेस बना चुके हैं। उसमें भी मौजूदा राजनीतिक चिंतन हो रहा है। बाबा साहब बुद्ध नहीं लेकिन बुद्धिमय बौद्ध थे।

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