⭕ || पकड़ने की कला में निपुण नहीं होती देह ||
वर्षों पुरानी हो गयी है देह
भार नहीं संभाल पाती
चुंबन गिर रहे हैं
केशों की रेखा पर रखे गए थे जो
अज्ञातवास के ईश्वर की तरह
जो वेदों से निकल कर घूमता है अर्धरात्रि की शीतल कालिमा में
टहक कर आये स्वेद से जैसे
भीगा जान पड़ता है
क्षुधा गिरती है
जो अन्न में नहीं
कटे बिल्व फल की धार में रहती है
ऊँगली सराबोर कर
जो मुख भर भी नहीं आता उससे कैसी तुष्टि
कामना गिर रही है जर्जर होती देह से
बीच शहर में एक पीली बत्ती के आलोक जैसी
यों धूसर पड़ती है क्षण भर में ज्यों अचानक ही रस सूख गया है बाती से
कथा मान जाती है किन्तु खुली रह जाती है पोथी
पकड़ने की कला में निपुण नहीं होती देह
जैसे निपुण होती है नृत्य नाटिका में
गिरते दुःख को देखती है
गिरते परों को गिनती है
गिरते भस्म को जुटाती है
नहीं जकड़ पाती अग्नि
ऋतुओं के इतने चक्र बीतते हैं
संसार सोचता है क्यों नहीं जकड़ लेती अपनी प्रीति
किन्तु एक ही चीर है
एक ही ह्रदय
क्या कहती जीवों से जो मात्र सौंदर्य में गिरते हैं
अपने स्थान से हिली तो अनावृत ही होगी।

⭕ | ईश्वर का एकांत ||
विषम अवस्था है उसके एकांत की
काव्य में पड़ा जैसे कोई तरल बिम्ब
क्षण भर प्रकट होता है फिर स्वयं ही में विलुप्त
एक और निषिद्ध रूप वाला प्रेमी
जोड़ लेता है घुटने पसलियों से
ताप में दग्ध झूलती है वेणी जो उसकी जंघाओं पर है
किन्तु ओझल है उद्गम
केवल वह चित्रकार जानता है
जिसने पूस के पाले में उकेरी थी मंदिर की चौथाई दीवार
कि स्वयं एक भीषण अरण्य जैसी
प्रेयसी प्रणय पश्चात गंगा में करती है प्रभात स्नान
यों तो कोई नहीं देखता किस दिशा से आलिंगन लिया है उसका जल कणिकाओं ने
केवल वट दीखता है उसके चतुर्दिक
वह भी घनघोर मेघ जैसा अब बरसा की तब बरसा
गिरे पात से भरे हुए हैं उसके अंग
कोई अनंत राग में फूलते हुए मदार जैसी तपती है जटा
जहाँ हर तिमाहे निर्जल ही पड़ा रहता है सूर्य
वहां से पाँव नहीं उठते
मूर्छा घेर लेती है काया को
तब जी होता है सामुद्रिक से महूरत निकलवा कर
कह आऊँ –
तुम्हारे द्वार पर इतने नदी पोखर हैं
कविता पढ़ कर भी शांत नहीं होती धारा
इतना सिन्दूर है देह पर
कि झुकने से लाल पड़ जाता है सम्पूर्ण वक्ष
तुम्हारे एकांत में अडोल हो उठती है श्वास
जैसे पांचवी बार मृत्यु गंध आने पर भी नहीं हिली थी पुतली
बरस के कोई भी पखवाड़े आने से जीवन नहीं छूटता
मोह छूट जाता है अपनी काया से।

⭕ || जिसे भय नहीं था यह इक्कसवीं सदी है ||
जिस अशांत हृदय को लिए डोल आयी पूरा भुवन
दो पैसे की पुड़िया में रखी कामना जैसी बहती रही जल में
नदी दिपदिपाती रही पीछे
खंगाल दिए काव्य और पुस्तकों से भरे ताखे
प्यासी भटकती रही लिप्सा से मुक्त बांगला फिल्मों में
टकटकी लगाए जड़वत रही मछुआरों की हाँक से गूंजते नगर में
वह निमिष भर में शिथिल हुआ तुम्हारी छाती से लगते
क्या यहीं शांत हुए थे उमड़ते ज्वालामुखी
गहन हुए थे तमाल के वन
स्वर मूक हो गए मद्धम ताप में सीझते
क्या यहीं मिट गया था अंजन !
जिसके तल में असूर्यम्पश्या श्वास का कोलाहल है
हाड़ में धूम्र भरा है बीड़ी का
जिसके निश्चेष्ट आलिंगन में अवरुद्ध होते हैं कंठ
टीके ही रहते हैं दो स्कन्धों के मध्य एक कपोत के पंख
क्या वहीं उग्रवादियों ने समर्पण किया था हथियारों के बोझ से थक कर
टोकरी रख दी थी खजूर की एक आदिवासी बाला ने
जब पृथ्वी पर मेघ उत्पात करते थे
आधी बाँध कर धोती क्या यहीं सो गयी थी वह
जिसे भय नहीं था यह इक्कसवीं सदी है।

⭕ || असीम देह पर हरीतिमा लिए ||
असीम देह पर हरीतिमा लिए
जिस तरह रात्रि तिमिर देखता है मुझे
बस उतना ही प्यार कर सकती हूँ मैं
“खिड़की खुली रहे तो और घना हो जाता है जीवन”
यह बात कहने को बहुत धीमी श्वास में कही थी
किन्तु तीव्र वेग से नदी की तरह पसर गयी है
गाढ़े कर दिए शिराओं में अरण्य
किसी जाते हुए को देखने के लिए नहीं
सांझ में कौंधते लावण्य के लिए दर्पण देखती हूँ
कौन है जो आता है पलट कर
सिर्फ ठन्डे हो रहे गुलाब हैं
सिर्फ सिकुड़े हुए तलवे हैं
और मूक केश है शय्या पर बरसों से खुले हुए
“तुम्हारी उत्कंठा में मेरे स्वप्न तैरते हैं “
यह पंक्ति कोई तीखा आघात है ब्रह्माण्ड से टूट गिरता है सुन्दर पल में
“मुझे भय है मुख के शुष्क होने का
सुरक्षित रखो जैसे वाद्य रखते हैं संगीतकार अपने “
बार बार ही दोहराती हूँ
मेरे ही निराश्रय स्पर्श हैं
तारों को खींचते हैं पृथ्वी पर।

⭕ || आत्मा है देह के बाहर भी ||
इतने गीत हैं तुम्हारी देह में
एक उठाती हूँ तो दूसरा छूट जाता है पीछे
ज्यों ठाकुर की बाड़ी जाती थी जोरासांको तो भूल जाती थी
कमरे के बाहर भी है उनकी गंध
आत्मा है देह के बाहर भी
बरामदे में गेंदे के पुष्प से झांकती
गाइड कहता है
यह प्राचीन किताब है महत्वपूर्ण है इसकी लिपि
मुझे बुरा लगता
क्यों नहीं कहता टूरिस्ट से
इतना जल है इसमें जितना तुम्हारी देह में नहीं
इतने अचूक मन्त्र है तुम्हारे कवियों के पास
पलक झपकते अपराह्न को बदल देते है रात्रि में
स्पर्श के पूर्व ही मृत्यु हो जाए
ऐसे छूते हैं
मेरे समक्ष ही नाटकों में
दूसरी पंक्ति की स्त्री ने हाथ धरा था पहली पंक्ति के चित्रकार का
और वही चित्र कला दीर्घा में टंगा था
पावस के दिवस भीषण वर्षा में
इतने कलेश हैं और इतने आलाप
एक भी नहीं कहती तो कंठ तक आ जाते हैं
तुम अपार्थिव ईश्वर को देखते हो यह मुझे
दृग खोले एकटक
अन्धकार में भी और चिलक में भी
सम्पूर्ण श्रृंगार में और अनावृत भी
सब आवेग ले रहा है मुझसे
ज्यों लेता है बाबू घाट फूलों की गंध से विचलित धारा के
इस तरह लेना भी देने का बिम्ब है
तुम आओगे और चूमोगे तो प्रतिमा हो जायेगी देह
दुर्गा जैसी
जरा भी नहीं सिहरेगी।

⭕ || कैसे व्यर्थ कर रहे हो जीवन ||
कान लगाओ मृत कवियों के पोथे से
फिर देखो
कैसे व्यर्थ कर रहे हो जीवन
हवा जिसे नहीं भेद पाती
अपकीर्ति की गंध भेद देती है ऐसी भाषा को
जिसे मधु के ज्वार से भय लगता हो
वही छुपता है ऐसी तिक्त भाषा में
जो मंच पर चढ़कर खँखारती है
ऐसा कह कर प्रेयसी उधर मुख फेरती है
जिधर अशोक मदमत्त झूम रहा है सुगंध से
और विद्यालय के भग्न प्रांगण में गिर रहे हैं कटहल
जाने किस दुःख से भरे हुए
ऐसे दिनों में
हाट तक जाओ देखो
दर्पण महंगे हैं प्रतिबिम्ब सस्ते
भरी जाती पदचाप में सिर्फ कोलाहल है
जैसे सिकुड़ते सागर में हो गया है तिमिर
दूर तक इतना आलोक है की आँख नहीं खुलती
पश्चाताप में कहती तो
कई युद्ध के बाद कहती
मारे गए अधिकतर प्रेमी थे कवि नहीं
क्रांतिकारी शहीद हुए
बचे हुए व्यापारी थे
विद्रोह में कहती हूँ –
क्या अनामदास का पोथा पढ़ा है !
जी होता है
वैसे ही रख लूँ वक्षों पर तुम्हें
कोई सम्पादक आएगा तुम्हें खोजते
तो देखेगा तुम्हारे स्मृति चिन्ह
कलकत्ते से बड़े कवि दिल्ली में कहाँ हुए
दिल्ली से ऊँचे मक़बरे तो पूरी दुनिया में नहीं
तुम मरते हो मात्र बड़े होने को
जबकि चिड़ीभाजा फांकता कोई नेता मित्र कहता था
एक ब्राह्मण कुल के कविवर को
जबकि मेले में खोने से नहीं खोजा उसने
एक पुराने संगी को
मुझे चूमने से टूट जायेगी
जंगली बेल जो चढ़ती है पृष्ठ पर !
कोई बात नहीं
देखो तो
तुम्हारे पीछे तो बड़े कवि हैं
प्रस्तावना लिखते हैं अब कविता नहीं।

⭕ || किस बात की भरपाई करूँ अब ||
किस बात की भरपाई करूँ अब
तुम्हारे चित्र फूलों और पत्तियों को लौटा दिए
रंग, सड़क किनारे बैठे कुम्हार को
तुम्हारे चुम्बन पिघला दिए जेठ की धुप में
जिस तरह टूटते थे नौका के पटरे
कटि, स्कंध , हथेली
एक एक सीढ़ी तुम्हारी देह की
जिस पर तलवे टिकाये थे और चिबुक ने ओट ली थी
उसे पुस्तकालय में बाँट आयी
सबसे ऊँचे ताखे पर रखी थी निराला की पोथी
हर दिन खबर आती है
एक बलात्कार को दूसरा बलात्कार निगल गया
एक खुदखुशी को दूसरी
मैं किस बात का विरोध करूँ
एक चुप्पी निगल लेगी एक क्रांति
सब बड़े हो गए सब अजर अमर
क्योंकि पहला उनका था वह शब्द
मैं किस बात का हंगामा करूँ
अगर बुद्धदेव को पढ़ा है, अगर जय गोस्वामी को देखा है
तो यही ठीक है
मेरी कविता कहे चीख कर यह अंतिम शब्द ही ब्रह्म है
दमदम के आखिरी क्षोर का लैंप पोस्ट रात भर बुझा रहता है
सिर्फ फीका अलाव जागता है
जिस पर और किसी का नहीं मेरे रोबी का हक़ है
जो रात बिरात लौटता है
ठण्ड से नहीं ताप के प्रभाव से प्रोज्ज्वल सा
मैं किस अचरज के लिए छोड़ दूँ यह शहर
तुम अकेले ही थे जिसे रास न आयी मछलियों की गमक
तुम ही अकेले थे जो रास आये थे
कवियों से भरे इस शहर के पुल को
जहाँ और कुछ नहीं मालाएं झूलती हैं जवा की
ठाकुर की देह गंध से रची बसी
जीवन परिक्रमा में आधा साहित्य छूट गया
तुम भी छूट गए
परिषदों में मेले लगे, देखने ना गयी
शांतिनिकेतन में व्यापार हुआ नभ धूल से रंगहीन रहा
मायापुर में निर्विकार रहे ईश्वर और एकतारा बोलता रहा
ऐसा कुछ न हुआ जिसका दुःख होता
बहुत पहले ही दुःख के धूम्र ने काली कर दी भूमि
अब नख कलुषित होते हैं ऊँगली धरते
किस वस्तु का आग्रह करूँ तुमसे
नयी सड़कें बन गयी हैं कस्बों में
बस्तियों में बेतहाशा दुकानें हो गयी हैं
पैसे अधिक लेता है पुजारी किन्तु दर्शन पहले करवाता है भोलेनाथ के
जाने हुए विकार का दोष अधिक गहरा होता है
जो स्थान शेष रह जाता है आलिंगन करती देहों के मध्य ,
उसे तुम कहाँ भर सकते थे।
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० ज्योति शोभा*
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० दस्तक के लिए प्रस्तुति : अनिल करमेले
Tue Feb 5 , 2019
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