9.10.2018
प्रस्तुति अनिल जनविजय
सागर सिद्द्की का जन्म अम्बाला में एक मज़दूर परिवार में हुआ था और जन्म के समय उन्हें मुहम्मद अख़्तर नाम दिया गया था। उनके पिता के एक मित्र थे हबीब हसन, जो शायर थे।। उन्होंने ही सागर सिद्द्की को अक्षर ज्ञान करवाया, उर्दू सिखाई और शायरी करना सिखाया। वैसे तो सागर सिद्दीकी की मातृभाषा पंजाबी थी, लेकिन आठ साल की उम्र में ही वे उर्दू में सिद्धस्त हो गए थे और मज़दूरों के ख़त और अर्ज़ियाँ लिखने लगे थे।
13 साल की उम्र में वे उर्दू में शायरी करने लगे और उन्होंने शायर के रूप में अपने लिए नासिर हिजाज़ी नाम चुना। लगभग तीन साल तक उन्होंने मुशायरों में इसी नाम से शिरकत की। 16 साल की उम्र में वे सहारनपुर, लुधियाना, अमृतसर और जालन्धर आदि शहरों में होने वाले मुशायरों में बुलाए जाने लगे। तभी वे पिता का घर छोड़कर अपने गुरु के साथ अमृतसर चले गए और वहीं रहने लगे। उन्होंने अपने लिए नया नाम चुना। अब वे सागर सिद्दीकी बन गए थे।
1947 में देश विभाजन के वक़्त उनकी उम्र 19 साल थी। वे हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चले गए और लाहौर में सड़कों पर ज़िन्दगी गुज़ारने लगे। उनकी हालत इतनी ख़स्ता थी कि वे दो-दो रुपए में अपनी ग़ज़लें लोगों को बेच दिया करते थे। वे लोग आगे उन ग़ज़लों को अपने नाम से छपवा लिया करते थे।
उन दिनों ही मुम्बई से पाकिस्तान गए फ़िल्म जगत के कुछ लोगों ने मिलकर फ़िल्म ’लाल मिर्ज़ा’’ का निर्माण किया। फ़िल्म के निर्देशन का भार संगीतकार मास्टर आशिक हुसैन ने अपने ऊपर ले लिया। वे सागर सिद्दीकी को जानते थे। उन्होंने सागर सिद्दीकी से फ़िल्म के लिए गाना लिखने की फ़रमाइश की और सागर सिद्दीकी ने 20 साल की उम्र में ’दमादम मस्त कलन्दर’ लिखकर मास्टर आशिक़ हुसैन को दे दिया। गीत के बदले उन्हें बीस रुपए दिए गए थे। फिर आशिक़ हुसैन ने इस गीत की धुन बनाई और गायिका नूरजहाँ से यह गीत गवाया। इसी गीत को गाने के बाद नूरजहाँ बेहद लोकप्रिय गायिका बन गईं और यहीं से उनका फ़िल्मों के लिए गायन के क्षेत्र में प्रवेश हुआ। बाद में धीरे-धीरे यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि सारी दुनिया में छा गया। दुनिया भर के तीन सौ से अधिक गायकों ने यह गीत गाया है।
लेकिन गीत के रचियता और संगीतकार ग़रीब ही रह गए। सागर सिद्दीकी भिखारियों के साथ ही सड़क पर रह गए। उन्हें भांग, चरस और गांजे जैसे नशों की आदत पड़ गई थी और वे भीख मांगकर गुज़ारा करते थे और सड़क पर ही रहा करते थे। घोर सर्दियों की रात में वे कूड़ा जलाकर अपनी ठण्ड भगाया करते थे। 19 जुलाई 1974 को सुबह-सवेरे लाहौर में एक दुकान के सामने सड़क पर उनका शव पाया गया था।
उधर मास्टर आशिक़ हुसैन नई इक्कीसवीं सदी में भी ज़िन्दा थे। संगीतकार के रूप में उनकी कोई पूछ नहीं थे। अपने निधन से एक दिन पहले तक वे सड़क पर पकौड़े बनाकर बेचने का ठेला लगाते थे और उसी से अपनी जीविका चलाते थे।
1. 🔹
ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
जा चुकी है बहार चुप हो जा
अब न आएँगे रूठने वाले
दीदा-ए-अश्क-बार चुप हो जा
जा चुका कारवान-लाला-ओ-गुल
उड़ रहा है ग़ुबार चुप हो जा
छूट जाती है फूल से ख़ुश्बू
रूठ जाते हैं यार चुप हो जा
हम फ़क़ीरों का इस ज़माने में
कौन है ग़म-गुसार चुप हो जा
हादसों की न आँख खुल जाए
हसरत-ए-सोगवार चुप हो जा
गीत की ज़र्ब से भी ऐ ‘साग़र’
टूट जाते हैं तार चुप हो जा
2.🔹
ऐ हुस्न-ए-लाला-फ़ाम ! ज़रा आँख तो मिला
ख़ाली पड़े हैं जाम! ज़रा आँख तो मिला
कहते हैं आँख आँख से मिलना है बंदगी
दुनिया के छोड़ काम ! ज़रा आँख तो मिला
क्या वो न आज आएँगे तारों के साथ साथ
तन्हाइयों की शाम ! ज़रा आँख तो मिला
ये जाम ये सुबू ये तसव्वुर की चाँदनी
साक़ी कहाँ मुदाम ! ज़रा आँख तो मिला
साक़ी मुझे भी चाहिए इक जाम-ए-आरज़ू
कितने लगेंगे दाम ! ज़रा आँख तो मिला
पामाल हो न जाए सितारों की आबरू
ऐ मेरे ख़ुश-ख़िराम ! ज़रा आँख तो मिला
हैं राह-ए-कहकशाँ में अज़ल से खड़े हुए
‘साग़र’ तिरे ग़ुलाम ! ज़रा आँख तो मिला
3.🔹
बात फूलों की सुना करते थे
हम कभी शेर कहा करते थे
मिशअलें ले के तुम्हारे ग़म की
हम अंधेरों में चला करते थे
अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
चोट खा कर जो दुआ करते थे
तर्क-ए-एहसास-ए-मोहब्बत मुश्किल
हाँ मगर अहल-ए-वफ़ा करते थे
बिखरी बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों वाले
क़ाफ़िले रोक लिया करते थे
आज गुलशन में शगूफ़े ‘साग़र’
शिकवा-ए-बाद-ए-सबा करते थे
4.🔹
बरगश्ता-ए-यज़्दान से कुछ भूल हुई है
भटके हुए इंसान से कुछ भूल हुई है
ता-हद्द-ए-नज़र शोले ही शोले हैं चमन में
फूलों के निगहबान से कुछ भूल हुई है
जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
हँसते हैं मिरी सूरत-ए-मफ़्तूँ पे शगूफ़े
मेरे दिल-ए-नादान से कुछ भूल हुई है
हूरों की तलब और मय ओ साग़र से है नफ़रत
ज़ाहिद तिरे इरफ़ान से कुछ भूल हुई है
5.🔹
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
तुम से कहीं मिला हूँ मुझे याद कीजिए
मंज़िल नहीं हूँ ख़िज़्र नहीं राहज़न नहीं
मंज़िल का रास्ता हूँ मुझे याद कीजिए
मेरी निगाह-ए-शौक़ से हर गुल है देवता
मैं इश्क़ का ख़ुदा हूँ मुझे याद कीजिए
नग़्मों की इब्तिदा थी कभी मेरे नाम से
अश्कों की इन्तिहा हूँ मुझे याद कीजिए
गुम-सुम खड़ी हैं दोनों जहाँ की हक़ीक़तें
मैं उन से कह रहा हूँ मुझे याद कीजिए
‘साग़र’ किसी के हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल-शिआर की
बहकी हुई अदा हूँ मुझे याद कीजिए
6.🔹
चाँदनी को रसूल कहता हूँ
बात को बा-उसूल कहता हूँ
जगमगाते हुए सितारों को
तेरे पाँव की धूल कहता हूँ
जो चमन की हयात को डस ले
उस कली को बबूल कहता हूँ
इत्तिफ़ाक़न तुम्हारे मिलने को
ज़िन्दगी का हुसूल कहता हूँ
आप की साँवली सी मूरत को
ज़ौक़-ए-यज़्दाँ की भूल कहता हूँ
जब मयस्सर हों साग़र-ओ-मीना
बर्क़-पारों को फूल कहता हूँ
7.🔹
चाँदनी शब है सितारों की रिदाएँ सी लो
ईद आई है बहारों की रिदाएँ सी लो
चश्म-ए-साक़ी से कहो तिश्ना उमीदों के लिए
तुम भी कुछ बादा-गुसारों की रिदाएँ सी लो
हर बरस सोज़न-ए-तक़दीर चला करती है
अब तो कुछ सीना-फ़गारों की रिदाएँ सी लो
लोग कहते हैं तक़द्दुस के सुबू टूटेंगे
झूमती राह-गुज़ारों की रिदाएँ सी लो
क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ुल्द से ‘साग़र’ की सदा आती है
अपने बे-ताब किनारों की रिदाएँ सी लो
8.🔹
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
अपनी तक़दीर कहाँ भूल गया ईद का चाँद
उन के अबरू-ए-ख़मीदा की तरह तीखा है
अपनी आँखों में बड़ी देर छुपा ईद का चाँद
जाने क्यूँ आप के रुख़्सार महक उठते हैं
जब कभी कान में चुपके से कहा ईद का चाँद
दूर वीरान बसेरे में दिया हो जैसे
ग़म की दीवार से देखा तो लगा ईद का चाँद
ले के हालात के सहराओं में आ जाता है
आज भी ख़ुल्द की रंगीन फ़ज़ा ईद का चाँद
तल्ख़ियाँ बढ़ गईं जब ज़ीस्त के पैमाने में
घोल कर दर्द के मारों ने पिया ईद का चाँद
चश्म तो वुसअ’त-ए-अफ़्लाक में खोई ‘साग़र’
दिल ने इक और जगह ढूँड लिया ईद का चाँद
9.🔹
चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
ज़रा नक़ाब उठाओ बड़ा अँधेरा है
अभी तो सुब्ह के माथे का रंग काला है
अभी फ़रेब न खाओ बड़ा अँधेरा है
वो जिन के होते हैं ख़ुर्शीद आस्तीनों में
उन्हें कहीं से बुलाओ बड़ा अँधेरा है
मुझे तुम्हारी निगाहों पे ए’तिमाद नहीं
मिरे क़रीब न आओ बड़ा अँधेरा है
फ़राज़-ए-अर्श से टूटा हुआ कोई तारा
कहीं से ढूँड के लाओ बड़ा अँधेरा है
बसीरतों पे उजालों का ख़ौफ़ तारी है
मुझे यक़ीन दिलाओ बड़ा अँधेरा है
जिसे ज़बान-ए-ख़िरद में शराब कहते हैं
वो रौशनी सी पिलाओ बड़ा अँधेरा है
ब-नाम-ए-ज़ोहरा-जबीनान-ए-ख़ित्ता-ए-फ़िर्दौस
किसी किरन को जगाओ बड़ा अँधेरा है
10.🔹
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ऐ ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-दौराँ तुझे मेरा सलाम
ज़ुल्फ़ आवारा गरेबाँ चाक घबराई नज़र
इन दिनों ये है जहाँ में ज़िन्दगानी का निज़ाम
चंद तारे टूट कर दामन में मेरे आ गिरे
मैं ने पूछा था सितारों से तिरे ग़म का मक़ाम
कह रहे हैं चंद बिछड़े रहरवों के नक़्श-ए-पा
हम करेंगे इंक़लाब-ए-जुस्तुजू का एहतिमाम
पड़ गईं पैराहन-ए-सुब्ह-ए-चमन पर सिलवटें
याद आ कर रह गई है बे-ख़ुदी की एक शाम
तेरी इस्मत हो कि हो मेरे हुनर की चाँदनी
वक़्त के बाज़ार में हर चीज़ के लगते हैं दाम
हम बनाएँगे यहाँ ‘साग़र’ नई तस्वीर-ए-शौक़
हम तख़य्युल के मुजद्दिद हम तसव्वुर के इमाम
11.🔹
एक वा’दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
वर्ना इन तारों भरी रातों में क्या होता नहीं
जी में आता है उलट दें उन के चेहरे से नक़ाब
हौसला करते हैं लेकिन हौसला होता नहीं
शम्अ जिस की आबरू पर जान दे दे झूम कर
वो पतिंगा जल तो जाता है फ़ना होता नहीं
अब तो मुद्दत से रह-ओ-रस्म-ए-नज़ारा बंद है
अब तो उन का तूर पर भी सामना होता नहीं
हर शनावर को नहीं मिलता तलातुम से ख़िराज
हर सफ़ीने का मुहाफ़िज़ नाख़ुदा होता नहीं
हर भिकारी पा नहीं सकता मक़ाम-ए-ख़्वाजगी
हर कस-ओ-ना-कस को तेरा ग़म अता होता नहीं
हाए ये बेगानगी अपनी नहीं मुझ को ख़बर
हाए ये आलम कि तू दिल से जुदा होता नहीं
बारहा देखा है ‘साग़र’ रहगुज़ार इश्क़ में
कारवाँ के साथ अक्सर रहनुमा होता नहीं
***
अनिल जनविजय , लेखक,कवि और साहित्यकार
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